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‘ज’ से जल…जीवन भी

कुसुम सोगानी
इंदौर (मध्यप्रदेश)
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ज से जल जीवन स्पर्धा विशेष…

ये पानी जिन्दगानी,
क्यों ना समझे प्राणी
आग लगे पे कुँआ खोदे,
ढूँढे मिले ना पानी।

ये साँस है,
ये आस है
विकास है,
प्रकाश है
‘ज’ से जल है प्राणी,
गुजर गया वो वक़्त
मनुष ने खूब बहाया पानी,
पानी है बिन मोल सोच के
कि पानी की मनमानी।

ये उमंग है,
तरंग है
सुगंध है,
संचयन कर पानी
गुजर गया समय वो,
बे मोल कह के
ढोलता था पानी,
तालाब थे नदियाँ थीं
लबालब थे कुएं-बावड़ी,
झील-झरने कुंड में
रहता चमकता पानी,
तब था नहीं प्रदूषण
शुद्ध था पर्यावरण,
वर्षा ऋतु का जल
नदियों में होती कल-कल,
सूरज का ताप होता,
मद्धिम भी जल से होता
वृक्षों की जड़ जल सोखती,
हरियाली छाई रहती
जंगल भी थे पर्वत भी थे,
टकराती वायु
पानी बनाया करती।

अब कांक्रीट की बिल्डिंग,
पक्की बनी है सड़कें
कुएं पड़े हैं सूखे,
पशु पक्षी प्यासे तरसे,
मैदान बन गई सरिता
पानी की त्राहि-त्राहि,
चंहुओर पृथ्वी सूखी
कर लो संचित पानी,
वर्षा का जल संरक्षित
एकत्र कर के पानी,
बूँद-बूँद से भरा घड़ा,
सार्थक करो कथनी।
जल से जीवन,जानते हो,
जल है,तो ज़िंदगानी॥

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