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मरणरेखा कब है ?

अनिल जोशी 
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श्रद्धांजलि
मेरी पुस्तक `प्रवासी लेखन:नयी जमीन,नया आसमान` की पांडुलिपि तैयार थी। पुस्तक की भूमिका किसी वरिष्ठ लेखक से लिखवाने के लिए सोच रहा था। प्रवासी साहित्य में सुषम बेदी के योगदान को देखते हुए लगा,वही इस कार्य के लिए सर्वाधिक उपयुक्त रहेंगी। ब्रिटेन में जल्दी ही पुस्तक का लोकार्पण होना था। मैं संकोच में था क्या वें इतनी जल्दी लिख पाएँगी! मैं फिजी के भारतीय हाई कमीशन में काम कर रहा था। वहां से मैंने पुस्तक की पांडुलिपि के साथ एक मेल भेजा,जिसमें मैंने सुषम बेदी जी से पुस्तक की भूमिका लिखने का अनुरोध किया। दो दिन बाद मेरे पास सुषम जी से एक मेल आई-`मरणरेखा कब है ?` मतलब ‘डेडलाइन’ से था। व्यंग्य था,पर कहीं `मरणरेखा` शब्द दिमाग में अटक गया। आगे उन्होंने लिखा था,मैंने एक सिटिंग में पूरी किताब पढ़ ली है। बहुत अच्छी पुस्तक है,मैं जरूर लिखूंगी। जब भूमिका मिली तो वह इतनी अच्छी थी कि जहाँ भी मेरी पुस्तक के लोकार्पण कार्यक्रम हुए,उनके लिखे को विशेष रूप से उद्धृित किया गया। उसमें उन्होंने लिखा था-‘जब अनिल जी ने कुछ शब्द लिखने के लिए अपनी पुस्तक (प्रवासी लेखन:नयी जमीन,नया आसमान) लिखने के अंश भेजे तो लगा प्रवासी लेखन बाकायदा सारी कक्षाएं पास कर ग्रेजुएट हो गया है।’ मेरे लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी। संदर्भ दूसरा था,पर उनके द्वारा प्रयुक्त ‘मरणरेखा’ शब्द दिमाग से निकल ही नहीं पा रहा। आज जबसे यह दुखद समाचार मिला है,रह -रह कर वह शब्द कौंध रहा है। अंतत: नियति की गति से वे अपनी मरण रेखा पर मार्च २०२० को पहुँची। इस रेखा की तरफ हम सब भी रोज खिसकते हैं।
संयोग से मेरा सुषम जी से पहला परिचय भी मृत्यु पर लिखी उनकी कहानी `अवसान` के माध्यम से आया था। मैंने उनकी कहानी `अवसान` पढ़ी। गजब की कहानी थी। कई दिन तक उस कहानी से बाहर निकल नहीं पाया। विदेश में मृत्यु कई लोगों के लिए बहुत खौफनाक कल्पना है। `अवसान` कहानी एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है,जिसकी ५७ वर्ष की आयु में मौत हो जाती है और अंत्येष्टि के समय उसकी अमेरिकी पत्नी भारत से उसके परिवार को भी आने देना नहीं चाहती। वह हिंदू रीति से अंत्येष्टि के लिए भी मना करती है। इस पूरे एलाइन-विदेशी वातावरण में उसके घनिष्ठतम मित्र शंकर को ऐसा लगता है कि जैसे बहुत कुछ छूट गया है। जैसे उसके मित्र की देह के साथ अंतिम क्षणों में न्याय नहीं हो रहा। सुषम बेदी लिखती हैं-
‘शंकर को लगा उसकी आवाज़ ख़ामोश हो रही है। उसके कान में फिर से पादरी की आवाज़ बजने लगी म़िट्टी से बन कर मिट्टी में ही मिल जाना है,उसे लगा जैसे वह अपना ही अवसान देख रहा है,इसी तरह,ठीक इसी तरह उसकी पत्नी गिरजाघर की दीवारें,लंबी रंगीन खिड़कियाँ,बाइबल की पंक्तियाँ,अनजाने चेहरों का सैलाब,डरे हुए पस्त चेहरे,धूल और मिट्टी के अंतहीन अंबार।
और उसने फिर से ज़ोर लगाया,पल भर को वह कुछ और देख सुन नहीं पा रहा था,फिर सहसा जैसे पानी को काटता हुआ कोई जलपोत उसके अधरों से फिर से फूट निकला ‘काट न सकते शस्त्र आत्मा को,आग न कभी इसे जलाती,विकृति रहित है अविचल आत्मा, जन्म नित्य है तो मरण नित्य।
अचानक उसे लगा,ताबूत में ख़ामोश लेटे दिवाकर का चेहरा उसकी ओर देख कर मुस्कुराया है। शंकर के रोंगटे खड़े हो गए। पल के भी छोटे से हिस्से में उसे महसूस हुआ कि दिवाकर कहीं नहीं गया,यहीं है,उसके आस-पास,पर वह मुस्कान थी या खिल्ली! इसका फैसला शंकर नहीं कर पाया।’
मैं जब लंदन में था,मेरे माता-पिता कुछ समय के लिए आए थे। उन्हीं दिनों ब्रिटेन की रानी(क्वीन) की मृत्यु हो गई। इसी बीच पड़ोस में एक मौत हो गई। मृत शरीर कुछ दिन के लिए शवदाहगृह में था। उस व्यक्ति की अंत्येष्टि के बाद मेरे माता-पिता को इतना डर लग गया कि,वे जल्दी-से-जल्दी भारत जाना चाहते थे। उन्हें डर था कि उनकी कहीं ब्रिटेन में मृत्यु ना हो जाए। वे डर रहे थे कि,कहीं भारतीय पद्धति से उनका अंतिम संस्कार ना हो। ‘अवसान’ कहानी भारतीय संस्कारों और पश्चिमी जीवन में गहरे भेद को सूक्ष्म तरीके से प्रस्तुत करती थी। लेखिका ने खामोशी,मन में चल रहे विचार,पादरी के कपड़े,उसके गूंजते हुए शब्दों और फिर शंकर के गीता पाठ से जो परिवेश बुना था,वह अदभुत था। यह कहानी कई भाषाओं में अनूदित हुई। अब मैं उनका प्रशंसक बन चुका था और उनसे मिलना चाहता था।
वर्ष २००२-०३ में लंदन में भारतीय हाई कमीशन में काम कर रहा था। तब वे अपने पति के साथ एक महीने के लिए लंदन आईं। उनकी पुस्तक ‘नवाभूम की रसकथा’ तभी आई थी। उस पर रमेश पटेल जी के घर सेन्ट्रल लंदन में एक गोष्ठी रखी गई। उपन्यास अमेरिकी समाज में भारतीय पति-पत्नी के बदलते रिश्तों पर केन्द्रित था। इस उपन्यास में कविताओं का भी सुंदर प्रयोग था। उपन्यास को कहीं ‘ गद्य में महाकाव्य’ भी कहा गया था। उसका कारण शायद पुस्तक का यह परिचय था “नवाभूम की रसकथा में कविता और उपन्यास घुल-मिल गए हैं। इसी से कई कविताएं भी उपन्यास में बिखरी दिख जाएगी। इस उपन्यास में जहाँ कविता पद्य रूप मे नहीं आई,वहाँ कथा अलग-अलग विधा होते हुए भी एक-दूसरे में घुल-मिल गई हैं।” एक वरिष्ठ आलोचक ने गोष्ठी में महाकाव्य की शाश्त्रीय परिभाषा पर कस कर इसे लगभग खारिज कर दिया। उन्होंने जायसी की `पद्मावती` का उदाहरण देकर बताया कि एक महाकाव्य में कितने घोड़े और कितने हाथी होने चाहिए। यह शब्दों की लिटरल व्याख्या थी।
एक और महानुभाव ने अच्छी-खासी आलोचना कर दी। कुछ हद तक सुषम जी अवाक थी। मैं तो उपन्यास में गहरा उतरा हुआ था। मुझे लगता था यह उपन्यास प्रवासी साहित्य में मील का पत्थर है। अपनी भाषा,संवेदना और बुनावट के चलते वह आधुनिक महाकाव्य जैसा ही था। यद्यपि,लेखिका का अपना ‘गद्य में महाकाव्य’ जैसा कोई दावा नहीं था। मैंने उपन्यास में छुपे प्रवासी जीवन के संवेदनशील सूत्रों की व्याख्या की। दिव्या जी आदि कई उपस्थित साहित्यकारों ने भी उपन्यास के विविध पहलूओं पर प्रशंसापूर्ण टिप्पणियां की। हम सब अति विशेष पुस्तक पर चर्चा कर घर प्रसन्नतापूर्वक लौटे। अगले दिन सुषम जी जब हाई कमीशन में आईं तो मैंने कहा कि आप एक-आध आलोचना से प्रभावित ना हों। इनमें से एक आलोचक तो ऐसे हैं,जो अमिताभ बच्चन,ऐश्वर्या राय,सचिन तेंदुलकर के कड़े आलोचक हैं। आप अपने को उसी श्रेणी में समझिए। ठहाकों के साथ बात समाप्त हो गई।
उनके लंदन प्रवास के दिनों में टेम्स नदी के किनारे नेशनल थिएटर पर कई गोष्ठियां हुईं। उन्हें थियेटर में गहरी रूचि थी। वे स्वयं थियेटर करती थी। उनकी बेटी पूर्वा अभिनेत्री हैंl लंदन प्रवास के दौरान दिव्या माथुर और मोहन राणा के साथ टेम्स के किनारे बैठकर उनसे साहित्यिक गपशप जीवन की महत्वपूर्ण याद बनी।
साहित्य को लेकर उनका नज़रिया बड़ा परिपक्व था। मनुष्य की निजी स्वतंत्रता में विश्वास रखती थी। किसी पर कोई चीज थोपने की पक्षधऱ नहीं थी,बच्चे तक पर नहीं। एक बार हम एक-दूसरे को कविता सुना रहे थे। मैेंने एक कविता सुनाई-स्कूल में पहला दिन,कविता के अंत में उस बच्चे को रोता हुआ स्कूल में छोड़ कर एक मंत्र पड़ने का प्रसंग है `असतो मा सद्गगमय।` सुषम जी ने उसके अंत को दुबारा सुनाने का आग्रह किया। उनकी संवेदना को रोते हुए बच्चे को स्कूल छोड़ना पसंद नहीं आ रहा था। ना ही वह मंत्र के कारण मिली संदर्भ की विराटता से भी प्रभावित नहीं हुई। उनके ध्यान से रोता हुआ बच्चा नहीं हट रहा था। उन्होंने मुझे कई और अंत सुझाए। उनका समस्त साहित्य इसी संवेदना के रस से सरोबार है।
मैं दिल्ली में वर्ष २००५ में वापस लौट आया था। वर्ष २००६ में हमने अक्षरम की ओर से भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद और साहित्य अकादमी के साथ मिलकर प्रवासी सम्मेलन आयोजित किया। सम्मेलन में एक वरिष्ठ आलोचक ने कहा कि,आलोचना करते हुए प्रवासी साहित्यकारों के साथ रियायत की जानी चाहिए। मंच पर वरिष्ठ लेखक रामदरश मिश्र,आलोचिका श्रीमती रोहिणी अग्रवाल,श्रीमती उषा राजे आदि उपस्थित थे। सुषम जी ने रियायत की बात का डटकर विरोध किया। यही दृष्टिकोण अभिमन्यु अनत का भी था,जिन्होंने एक प्रसिद्द पत्रिका से अपनी रचना इसलिए वापस ले ली थी कि संपादक ने यह कहा था सामान्य साहित्यिक मानदंडों पर यह रचना नहीं छप सकती,परंतु यदि रियायत बरती जाए तो छाप सकता हूँ। अभिमन्यु अनत ने रचना वापिस लेने के लिए लिख दिया था। वे किसी के कंधों की मोहताज नहीं थी। आत्मविश्वास से लबरेज। प्रवासी साहित्य को यदि श्रेष्ठता के मुकाम पर पहुँचाना है,तो सुषम बेदी जैसा दृष्टिकोण चाहिए।
सुषम जी से आखिरी मुलाकात भोपाल के बाद दिल्ली में इंडिया हैबिटेट सेन्टर में आयोजित प्रवासी कवि गोष्ठी की थी। सुषम जी को हमने अध्यक्षता के लिए अनुरोध किया। उन्होंने कविताएं पढ़ी और बाद में सार्थक टिप्पणी भी की। कार्यक्रम के बाद उनको टैक्सी नहीं मिल रही थी। सब जा चुके थे। हम लोग ख़ड़े रहे। अरविंद जी ने पहुँचाने की जिम्मेदारी ली,तब हम लोग निकले।
सुषम जी प्रवासी साहित्य की सबसे शीर्षस्थ रचनाकार थी। इसमें कोई विवाद नहीं है। कारण-उनके द्वारा रचित साहित्य का परिमाण और गुणवत्ता। उनके पति सत्तर के दशक में जब ब्रसेल्स में थे,तब उन्होंने `कहानी` पत्रिका में श्रीपत राय को एक कहानी लिख कर भेजी थी `जमी बर्फ का कवच।` श्रीपत राय को कहानी पसंद आयी और लिख कर भेजा `कहानी अच्छी है। लिखते रहोगी तो हाथ धीरे-धीरे खुल जाएगा` सुषम जी कहती हैं कि,यही सुषम जी के लिए लेखन का मंत्र बना। उस कहानी को लिखे आज ४ दशक से ज्यादा हो गए। इन वर्षों में उनकी रचनाशीलता बनी रही। सबसे बड़ी बात यह है कि,उन्होंने बड़ी संख्या में उपन्यास लिखे। उपन्यास लिखने के लिए बड़ा कैनवास चाहिए होता है। समाज की गत्यात्मक (डायनामिक)समझ,गहरी संवेदना और लिखने का कौशल।`हवन(१९८९),लौटन( १९९४),इतर कतरा दर कतरा(१९९४),इतर(१९९५),गाथा अमरबेल की(२०००),नवभूम की रसकथा(२००२),मोर्चे(२००६),मैंने नाता तोड़ा(२००९),पानी केरा बुदबुदा(२०१७)` जैसे उपन्यासों `चिड़िया और चील(१९९५),यादगारी कहानियां(२०१४),तीसरी आँख( २०१६),सड़क की लय(२०१७)` ने उन्हें प्रवासी साहित्य के शिखर पर पहुँचाया।
अगर कोई मुझसे पूछे कि,पश्चिमी देशों में प्रवासी भारतीयों के जीवन को समझने के लिए किसी एक साहित्यकार के साहित्य का नाम सुझाएं,तो मैं सुषम जी का नाम लूँगा। कारण स्पष्ट है सुषम जी ने जितने बड़े कैनवास में और गहरी दृष्टि से चीजों को देखा,उसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। ब्रिटेन के लेखकों में दिव्या माथुर ने कुछ वर्षों पहले ही पहला महत्वपूर्ण उपन्यास ‘शाम भर बातें’ लिखा,पंरतु अभी तक ब्रिटेन में हिंदी लेखन में उपन्यास परिदृश्य से गायब है। कहानी या कविता किसी क्षण विशेष, प्रसंग विशेष,किसी खास स्मृति,किसी खास पहलू पर लिखे जा सकते हैं,पर उपन्यास एक अलग विधा है। इसको लिखने के लिए भारतीय समाज को,पश्चिमी समाज को,जीवन को,अलग-अलग अस्मिताओं को,व्यक्ति और सामाजिक मनोविज्ञान को समझना और आत्मसात करना आवश्यक है। सुषम बेदी के लेखन की निरंतरता और गुणवत्ता प्रेरक है,जबकि वे इसके साथ कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़ा भी रही थीं और अन्य जिम्मेदारियां भी निभा रही थी।
सच तो यह है कि,प्रवासी साहित्य को प्रवासी साहित्य तब कहा जाने लगा जब सुषम जी जैसे समर्थ रचनाकारों ने इस विधा में पर्याप्त साहित्य का सृजन किया। सन १९८९ में `हवन` के प्रकाशन से लेकर जीवन के अंत तक तक लगातार वे हिंदी साहित्य को एक के बाद महत्वपूर्ण रचना देती चली गयीं।
वे स्त्री विमर्श की वाचाल योद्दा नहीं थी,पर प्रवासी देशों में रह रही भारतीय स्त्रियों की आवाज को जिस तरह से उन्होंने रखा है,वैसी कोई दूसरी मिसाल नहीं है।
लड़की थकी है,
उसे गोद नहीं मिलती
जिस्म दुखता है,
कंधा नहीं मिलता
बाँहों का घेरा बनाए बैठी है लड़की,
सिर गिरफ्त में नहीं आता
लड़की को कोई हक नहीं,
लड़की बन कर रहने का
या तो माँ बनेगी,
या वेश्या
कुछ और बनने की जिद करेगी,
तो सूली चढ़ेगीl
-सुषम बेदी
उनके सभी उपन्यास नायिका प्रधान हैं। उनके उपन्यासों में दोनों संस्कृतियों के द्वंद् का जो वर्णन है,वह प्रामाणिक और संवेदना से भरा हुआ है,पर यह नायिकाएं एक आयामी ऩहीं हैंl उदाहरण के लिए उपन्यास ‘गाथा अमरबेल की’ की बात करें। इस मर्मस्पर्शी औपान्यिसक कृति में चित्रित है,न केवल नारी-मन की व्यथा कथा,वरन् परिस्थितियों के अनुरूप ढल जाने और फिर सफलता की नयी-नयी सीढ़ियों को लांघ लेने की उत्कट आकांक्षा और उसमें अंतर्निहित शक्ति तथा सामर्थ्य। शन्नो ,जो जीवनभर प्यार नहीं पा पाती है अपने बेटे को लेकर इतनी पोसेसिव है कि, उसके बेटे का दांपत्य जीवन उसके हस्तक्षेप के कारण नहीं चलता। आखिर में बेटा भी आत्महत्या कर लेता है। एकाएक आप महसूस करते हैं कि,इतनी आपदाओं और कठिनाईयों से निकला कोई व्यक्ति कैसे दूसरे की भावनाओं की अनदेखी और अवहेलना कर सकता हैl ऐसे में मुझे प्रेमचंद का उपन्यास याद आता है,जहां एक महिला विधवा के नाते सभी दु:ख सहती है,परंतु अधिकार मिलने पर वही शोषक बन जाती है। उनकी रचनाशीलता की उर्वरता की अति यह है कि,वे अपने उपन्यास `गाथा अमरबेल की` में ३ अंत प्रस्तुत करती हैं और मजेदार बात यह है कि तीनों का निर्वाह करती हैं।
इसी प्रकार`इतर` उपन्यास में ब्रुनो का चरित्र है,जो प्रताड़ित महिला का हाथ पकड़ता है परंतु ढोंगी स्वामी द्वारा यह कहने पर कि तुम्हारे लिए इससे संबंध शुभ नहीं है,उसे छोड़ देता है। यही बहुआयामी चरित्र और उनकी जटिलता सुषम जी को अन्य लेखकों से अलग करती हैं। ‘इतर एक उपन्यास नहीं,एक चेतावनी भी है,उन लोगों के लिए जो जीवन में उन्नति या रोग निवृत्ति के लिए चमत्कार का शार्टकट खोजते हैं। इतर में कहीं ढोंग का खोखलापन दिखाने की मजबूरी थी,साथ ही उन लोगों की तकलीफ भी जो जाल में फंसकर निकल नहीं पाते।` यह उपन्यास विशेष रूप से प्रवासी भारतीयों में फैले अंधविश्वास और ढोंगी बाबाओं द्वारा किए जा रहे शोषण का भांडाफोड़ करता है। उस तरह से उनका लेखन क्रांतिकारी है,यद्यपि उसमें उस तरह की उद्घोषणा और दिखावा नहीं है।
हाल में ही मुझे एक कानूनी सेमिनार में प्रवासी भारतीयों में वैवाहिक विवादों पर बोलना था। मुझे सबसे पहले सुषम बेदी का उपन्यास ‘मोरचे’ याद आया। इस उपन्यास में एक हिंसक पति के चक्कर में फँसी तनु न तो रिश्तों से बाहर निकल पाती है,न ही उसके बीच रहने के काबिल है। विदेशी भूमि के अजनबी परिवेश में गिरती -पड़ती,ठोकरें खाती और सही रास्ते तलाशती तनु की बेजोड़ कहानी है। इस उपन्यास में कानूनी लड़ाई में औरतों की कमजोर स्थिति को दिखाया गया है। उपन्यास में तनु ना केवल कानूनी लड़ाई में पराजित होती है,बल्कि उसे पागल भी घोषित कर दिया जाता है।
उनके उपन्यासों की सभी नायिकाएं भारत से गई हैं। उनका विवाह-संबंध जटिल हैं। जीवन में उनके चमत्कार तो नहीं हैं,पर जिजीविषा है,नारा और शोर नहीं है। उन्होंने झंडा नहीं उठा रखा है,पर वे अपनी अस्मिता और भविष्य के प्रति सचेत हैं। वे नायिकाएं विधवा या परित्यक्ता की तरह जीवन नहीं जीती,बल्कि अपनी निजता रखती हैं और जीवन को संपूर्णता में जीने के लिए प्रयासरत हैं। संस्कृतियों के द्वंद्, भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति,भाषा और मूल्यों की कठिनाइयां जीवन में होते हुए भी वह हारी नहीं,यद्यपि जीतने का जयघोष भी नहीं करती। वे स्वयं को यथार्थवादी लेखक कहती हैं। उनकी कहानियां का यर्थाथ भोगा हुआ,जाना हुआ या एक निष्पक्ष विश्लेषक द्वारा बहुत निकट से देखा हुआ प्रतीत होता है। उनके यहाँ जोर चमत्कार पर नहीं है। उपन्यासों और जीवन में फासला नहीं है।
अपने लिखे हुए को जीने के बारे में वे लिखती हैं-“मैं जो कुछ भी लिखती हूँ,उसे जीती हूँ। सालों तक जीती हूँ,जब तक उपन्यास खत्म नहीं हो जाता। बहुत बार देर तक भी जीती हूँ। खुद भी रस लेती हूँ,चाहे वह पीड़ा हो। बहुत बार हैरान भी होती हूँ कि क्या मैं पाठक जैसा सुख ले रही हूँ या कि यह लेखन का सुख कुछ और ही है। पीड़ा को भी बार -बार भोगना,उसे सोचना शायद परवरेटड सुख हो सकता है।”
वे सिर्फ यथार्थ को प्रस्तुत करने वाली लेखिका नहीं थी,बल्कि मनोविज्ञान पर उनकी गहरी पकड़ थी। अपने पहले उपन्यास ‘हवन’ की सफलता के बाद उन्होंने `लौटना` उपन्यास लिखा।
सुषम बेदी के लेखन का दायरा इतना बड़ा था कि उन्होंने अपनी दृष्टि का अमेरिका में रहने वाले काले लोगों की व्यथा-कथा को शामिल किया। इस संदर्भ में उनकी कई कहानियां हैं। ऐसी ही कहानी दिव्या माथुर के संपादन में प्रवासी लेखिकाओं के संकलन ‘सफर साथ-साथ’ में छपी है। मैंने उसकी भूमिका में लिखा है-`सुषम बेदी की कहानी- एक अधूरी कहानी` एक ऐसे काले युवा की कहानी बयां करती है,जिसे अमेरिकन पुलिस ने मुठभेड़ में मार दिया था। उसके माता-पिता के न्याय के लिए गुहार का मर्मस्पर्शी चित्रण है। स्पष्ट है कि रंगभेद के खिलाफ यह संघर्ष अकेले करने के बजाए मिलकर करना होगा ।सुषम जी की विशिष्ट शैली में लिखी गई यह कहानी संकलन में एक नया आयाम जोड़ती है’।
वे लेखन में सबसे पहले अज्ञेय जी से प्रभावित रही। पंरतु उनके लेखन के प्रारंभिक काल में नई कहानी के लेखकों का उनपर गहरा प्रभाव दिखाई देता है। वे विश्व साहित्य की भी गहरी अध्येता थी इसलिए गार्सा दी तासी और मिलन कुंद्रा का प्रभाव भी उनके लेखन में था। वे मानती हैं प्रारंभिक उपन्यासों में उन पर मिलान कुंदेरा का प्रभाव था। हिंदी के नए कहानी लेखकों में वे उदय प्रकाश और प्रियंवद को पसंद करती हैं। पंरतु एक सफल लेखक की तरह उनका सारा लेखन इन प्रभावों को समाहित कर उनके व्यक्तित्व से निकला था।

‘प्रवासी लेखन:नयी जमीन,नया आसमान’ को पढ़ कर उन्होंने शुभकामनाएँ तो दी थी पर कहा था तुमने ब्रिटेन के लेखकों पर ही ज्यादा लिखा है। अमेरिका के लेखकों पर भी लिखो,मैंने उनसे वादा किया था, पर दुर्भाग्य उन पर लिखने से पहले वे इस दुनिया से विदा ले चुकी हैं। उनका जाना हिंदी साहित्य का तो नुकसान है ही,प्रवासी साहित्य ने भी अपना शीर्षस्थ रचनाकार खो दिया है। उनको हार्दिक श्रद्धांजलि।
(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)