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अपने काँटों से लगे…

प्रियंका सौरभ
हिसार(हरियाणा)

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हाथ मिलाते गैर से,अपनों से बेजार,
सौरभ रिश्ते हो गए,गिरगिट से मक्कारl

अपनों से जिनकी नहीं,बनती सौरभ बात,
ढूंढ रहे वो आजकल,गैरों में औकात।

उनका क्या विश्वास अब,उनसे क्या हो बात,
सौरभ अपने खून से,कर बैठे जो घात।

चूहा हल्दी गाँठ पर,फुदक रहा दिन-रात,
आहट है ये मौत की,या कोई सौगात।

टूट रहे परिवार हैं,बदल रहे मनभाव,
प्रेम जताते ग़ैर से,अपनों से अलगाव।

गलती है ये खून की,या संस्कारी भूल,
अपने काँटों से लगे,और पराये फूल।

ये भी कैसा प्यार है,ये कैसी है रीत,
खाये उस थाली करे,छेद आज के मीत।

चारों ओर गिरे हुए,रिश्ते लाज चरित्र,
अपने बेगाने हुए,दुश्मन के घर मित्र।

सीखा मैंने देर से,सहकर लाखों चोट,
लोग कौन से हैं खरे,और कहाँ है खोट।

राय गैर की ले रखे,जो अपनों से बैर,
अपने हाथों काटते,वो खुद अपने पैर।

ये भी कैसा दौर है,सौरभ कैसे तौर,
अपनों से धोखा करें,गले लगाते और।

अपनों की जड़ खोदते,होता नहीं मलाल,
हाथ मिलाकर गैर से,करते लोग कमाल।

अपने अब अपने कहाँ,बन बैठे गद्दार,
मौका ढूंढें कर रहे,छुप-छुपकर वो वार।

आज नहीं तो कल बनें,उनकी राह दुश्वार,
जो रिश्तों का खून कर,करें गैर से प्यार॥