बबिता कुमावत
सीकर (राजस्थान)
*****************************************
हमारे समाज में ‘स्त्री’ शब्द जितना कोमल है, उसकी स्थिति उतनी ही जटिल रही है। युगों से स्त्री ने हर क्षेत्र में अपनी योग्यता, संवेदना और शक्ति का परिचय दिया है-फिर भी उसे अक्सर ‘कमतर’ समझा जाता है। प्रश्न उठता है-आखिर क्यों ? लंबे समय तक स्त्रियों की आर्थिक निर्भरता ने उन्हें ‘निर्णय लेने की शक्ति’ से दूर रखा। आर्थिक रूप से स्वतंत्र न होने के कारण उनकी आवाज़ को दबा दिया गया।
पूर्वाग्रह स्त्री की पहचान को सीमित करते हैं और उसकी प्रतिभा को संदेह की दृष्टि से देखते हैं। टी.वी., फिल्में और विज्ञापन भी अक्सर स्त्रियों को केवल सौंदर्य या गृहस्थी की भूमिका में दिखाते हैं। इससे समाज में यह संदेश जाता है, कि स्त्री की पहचान केवल सजने-संवरने या त्याग करने तक ही सीमित है।
फिर भी, हाल के दशकों में तस्वीर बदल रही है। विज्ञान, राजनीति, खेल, साहित्य, व्यवसाय-हर क्षेत्र में महिलाएँ अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। वे न केवल आगे बढ़ रही हैं, बल्कि समाज की सोच को भी चुनौती दे रही हैं।
“स्त्री कोई वस्तु नहीं, वह शक्ति है- जो सृजन करती है, पोषण करती है और समाज को दिशा देती है।”
दरअसल, समाज को स्त्री वही पसंद है जो उसकी सुविधा अनुसार चले-न कम, न ज़्यादा। शायद इसलिए स्त्री को कम आँका जाता है, क्योंकि समाज डरता है। डरता है उस बुद्धि से, जो घर और दफ्तर दोनों संभाल लेती है। डरता है उस शक्ति से, जो बच्चों को जन्म भी देती है और देश चलाने का हौसला भी रखती है। और सबसे ज़्यादा डरता है उस दिन से, जब स्त्री यह समझ जाएगी कि “मुझे बराबरी की नहीं, सम्मान की ज़रूरत है-जो मेरा हक़ है।”
पर चिंता मत कीजिए, समाज अभी सुधार की प्रक्रिया में है। बस थोड़ा-सा अपडेट बाकी है। शायद अगले संस्करण में ‘स्त्री को कम आँकना’ वाला बग हट ही जाए।
दरअसल, समाज के पास स्त्री के लिए दो परिभाषाएँ हैं-एक पूजा के लिए और दूसरी उपेक्षा के लिए। बीच की कोई जगह ही नहीं छोड़ी। अगर स्त्री सुंदर हो तो समाज खुश होता है। अगर समझदार हो, तो समाज को असहजता होती है, क्योंकि समझदार स्त्री सवाल पूछती है- “क्यों मेरे फैसले तुम्हारे मानदंडों पर निर्भर हों ?” और समाज सवालों से डरता है, क्योंकि सवाल जवाब माँगते हैं, और जवाब देना समाज का पुराना रोग नहीं। इसलिए, समाज का सबसे आसान उपाय है-स्त्री को कम आँको, ताकि वह खुद पर शक करे, अपनी क्षमता पर संदेह करे, और सोचती रहे कि शायद सच में “मैं कमतर हूँ।” यही तो सबसे बड़ा सामाजिक हथियार है -आत्मविश्वास छीन लेना। जब स्त्री ने कमाना शुरू किया, तब समाज को झटका लगा। “अरे, अब ये पैसे भी कमाने लगीं ? लेकिन अब स्त्री खुद फैसले ले रही है, तो समाज के संस्कारों को हार्ट अटैक आने लगा है। सच तो यह है, कि समाज स्त्री से नहीं, उसकी ताकत से डरता है। वह डरता है उस आवाज़ से जो कहती है-“मैं बराबर हूँ।” वह डरता है उस कलम से, जो इतिहास बदल सकती है, उस हाथ से जो केवल रोटी नहीं, क्रांति भी गूंथ सकता है। वह डरता है उस मुस्कान से, जिसमें चुनौती छिपी है।
आज की स्त्री पूजा नहीं चाहती;पहचान चाहती है। वह चुप नहीं रहेगी, क्योंकि उसे अब अपनी कीमत पता चल गई है। और जिस दिन हर स्त्री यह समझ लेगी कि “कम आँका जाना कोई सम्मान नहीं, अपमान है,” उस दिन समाज का आईना साफ़ हो जाएगा-जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों बराबर दिखेंगे।
“स्त्री को कम आँकना आसान है, पर उसे नकारना असंभव।
