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उपभोक्ता शोषण राष्ट्र की सामूहिक चेतना पर आघात

ललित गर्ग

दिल्ली
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राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस (२४ दिसम्बर) विशेष….

‘राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस’ केवल उपभोक्ताओं से जुड़ी तारीख मात्र नहीं है, बल्कि यह उस मौलिक सत्य की स्मृति है कि किसी भी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था, सामाजिक संतुलन और नैतिक स्वास्थ्य का केंद्र बिंदु उपभोक्ता ही होता है। उपभोक्ता वह व्यक्ति है, जो अपने परिश्रम की कमाई को भरोसे, आवश्यकता और आशा के साथ बाज़ार में खर्च करता है, किंतु आज यही सबसे अधिक ठगा जा रहा है, भ्रमित किया जा रहा है और असुरक्षित है। ठगी, बेईमानी, मिलावट और गुणवत्ता-विहीन उत्पादों ने उपभोक्ता अधिकारों की नींव को हिला दिया है। यह स्थिति केवल आर्थिक शोषण तक सीमित नहीं रही, बल्कि उपभोक्ताओं के मानसिक, शारीरिक और स्वास्थ्य संबंधी जीवन पर गहरे और स्थायी आघात पहुँचा रही है। इसलिए उपभोक्ता दिवस मनाते हुए बाजार को आदर्श एवं स्वस्थ कलेवर देने के साथ उपभोक्ता हितों का संरक्षण जरूरी है।
आज का बाज़ार पहले की तुलना में अधिक जटिल, तेज़ और आक्रामक हो चुका है। उपभोक्ता के सामने विकल्पों की भरमार है, किंतु जानकारी और पारदर्शिता का अभाव है। चमकदार विज्ञापन, आकर्षक पैकेजिंग और भ्रामक दावे उपभोक्ता को निर्णय के उस बिंदु तक ले जाते हैं, जहाँ वह अक्सर वास्तविक गुणवत्ता और सुरक्षा को पहचान ही नहीं पाता। परिणामस्वरूप वह ऐसी वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग करने को विवश है, जो उसके स्वास्थ्य, मानसिक शांति और आर्थिक स्थिरता को नुकसान पहुँचाती हैं। मिलावटी खाद्य पदार्थ, नकली दवाइयाँ, घटिया निर्माण सामग्री और डिजिटल ठगी के नए-नए रूप यह प्रमाणित करते हैं कि उपभोक्ता अधिकारों का हनन अब अपवाद नहीं, बल्कि सामान्य प्रवृत्ति बनता जा रहा है।
यह विडंबना ही है, कि जिस दौर में भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है, उसी दौर में उपभोक्ता गुणवत्ता और सुरक्षा के लिए संघर्ष कर रहा है। आर्थिक प्रगति का वास्तविक अर्थ केवल सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि नहीं होता, बल्कि यह भी है कि उस विकास का लाभ आम नागरिक तक कितनी ईमानदारी और सुरक्षा के साथ पहुँच रहा है। यदि उपभोक्ता को सुरक्षित, गुणवत्तापूर्ण और अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप उत्पाद उपलब्ध नहीं हो पा रहे, तो यह विकास अधूरा और खोखला है। उपभोक्ता अधिकारों का उल्लंघन केवल जेब पर चोट नहीं करता, वह राष्ट्र के आत्मविश्वास और नैतिक शक्ति को भी कमजोर करता है।
उपभोक्ता जब बार-बार ठगा जाता है, तो उसके मन में बाज़ार और व्यवस्था दोनों के प्रति अविश्वास जन्म लेता है। यह अविश्वास धीरे-धीरे मानसिक तनाव, चिंता और असुरक्षा की भावना में बदल जाता है। मिलावटी भोजन और नकली दवाइयों से उत्पन्न बीमारियाँ केवल शारीरिक कष्ट नहीं देतीं, बल्कि परिवार और समाज पर दीर्घकालिक आर्थिक बोझ भी डालती हैं। इस प्रकार उपभोक्ता अधिकारों का हनन एक व्यक्ति तक सीमित नहीं रहता, वह सामाजिक और राष्ट्रीय समस्या का रूप ले लेता है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उपभोक्ता शोषण राष्ट्र की सामूहिक चेतना पर आघात है।
सरकार द्वारा बनाए गए उपभोक्ता संरक्षण कानून, मानक निर्धारण संस्थाएँ और शिकायत निवारण तंत्र अपने-आपमें महत्वपूर्ण हैं, किंतु उनकी प्रभावशीलता तब ही सिद्ध होगी, जब वे ज़मीन पर दिखाई दें। आज आवश्यकता है अधिक सशक्त शासन की, अधिक सक्रिय निगरानी की और अधिक संवेदनशील प्रशासनिक दृष्टि की। उपभोक्ता संरक्षण केवल एक विभाग या मंत्रालय की जिम्मेदारी नहीं हो सकती, यह समग्र शासन व्यवस्था की प्राथमिकता होनी चाहिए। जब तक मिलावट, धोखाधड़ी और भ्रामक व्यापारिक प्रथाओं पर त्वरित और कठोर कार्रवाई नहीं होगी, तब तक उपभोक्ता अधिकारों की बात केवल औपचारिक भाषणों तक सीमित रह जाएगी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यदि हम उन्नत अर्थव्यवस्थाओं की ओर देखें, तो स्पष्ट होता है कि वहाँ उपभोक्ता अधिकारों को केवल कानून के रूप में नहीं, बल्कि संस्कृति के रूप में स्वीकार किया गया है। उत्पाद की गुणवत्ता, सुरक्षा मानक, पारदर्शी जानकारी और त्वरित न्याय वहाँ बाज़ार की अनिवार्य शर्तें हैं। भारत को भी इसी दिशा में आगे बढ़ना होगा। वैश्विक प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए केवल सस्ता उत्पादन पर्याप्त नहीं है, बल्कि उच्च गुणवत्ता और उपभोक्ता संतुष्टि अनिवार्य है। भारतीय उपभोक्ता को यह महसूस होना चाहिए कि वह किसी भी अंतरराष्ट्रीय उपभोक्ता से कम सुरक्षित या कम सम्मानित नहीं है।
गुणवत्ता केवल वस्तु की नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की गुणवत्ता है जो उपभोक्ता को न्याय और सम्मान देती है। विश्वास केवल बाज़ार पर नहीं, बल्कि शासन और कानून पर विश्वास है। यदि ये तीनों तत्व सशक्त नहीं होंगे, तो उपभोक्ता दिवस का संदेश अधूरा रह जाएगा। उपभोक्ताओं के हितों की वकालत करता हुआ यह दिवस उपभोक्ताओं के अधिकारों, दायित्वों और संरक्षण की चेतना को सुदृढ़ करने का महत्वपूर्ण अवसर है। यह दिन याद दिलाता है कि उपभोक्ता केवल खरीददार नहीं, बल्कि बाजार व्यवस्था की आत्मा हैं, बाजार की शक्ति एवं गति है, इसलिए दिवस को औपचारिकता नहीं, बल्कि सतत जनआंदोलन के रूप में देखा जाना चाहिए।
डिजिटल मार्केटिंग की चुनौतियाँ आज उपभोक्ता हितों के लिए सबसे बड़ी कसौटी बनकर उभरी हैं। ऐसे में उपभोक्ताओं को डिजिटल साक्षर बनाना, जवाबदेही तय करना और त्वरित शिकायत निवारण तंत्र विकसित करना समय की मांग है, ताकि तकनीक उपभोक्ता के लिए सहायक बने, शोषण का साधन नहीं।
‘जागो ग्राहक जागो’ अभियान को आज क्रांतिकारी रूप देने की आवश्यकता है। जब कानून संवेदनशील होंगे और जागरूकता व्यापक, तभी उपभोक्ता सशक्तिकरण वास्तविक अर्थों में संभव होगा। आज आवश्यकता है कि उपभोक्ता अधिकारों को राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा बनाया जाए। व्यापार जगत को यह समझना होगा कि अल्पकालिक लाभ के लिए उपभोक्ता के साथ किया गया अन्याय दीर्घकाल में स्वयं उनके अस्तित्व को भी संकट में डाल सकता है। एक स्वस्थ अर्थव्यवस्था वही होती है जिसमें उपभोक्ता और उत्पादक के बीच भरोसे का संबंध हो। उपभोक्ता का सम्मान राष्ट्र का सम्मान है और उपभोक्ता की सुरक्षा राष्ट्र की सुरक्षा है। जब भारत विकास की नई ऊँचाइयों की ओर बढ़ रहा है, तब यह अनिवार्य है कि यह विकास उपभोक्ता के स्वास्थ्य, मानसिक शांति और विश्वास की कीमत पर न हो। इसी से नया भारत, सशक्त भारत एवं समृद्ध भारत बन सकेगा।