हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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उनकी साँसों से मेरी खुशियाँ (पिता दिवस विशेष)…
यह घटना सन १९९८ की है। जब यहाँ अटल बिहारी वाजपेयी जी की सरकार थी। वहाँ पाकिस्तान ने उनसे विश्वासघात करके भारत की कारगिल चोटी पर जंगी हालात पैदा कर दिए थे। मेरे पिता जी की तबियत उन दिनों नासाज थी, जबकि उम्र कोई खास नहीं थी। पिछले वर्ष ही तो एनिमल हसबेंडरी विभाग से सेवानिवृत्त हुए थे, परंतु अस्थमा के चलते उनकी सेहत हमेशा खराब ही रहती थी।
एक दिन शायद उन्हें कुछ ऐसा आभास हुआ हो कि, अब मैं नहीं बचूंगा। तब मुझे पास बुला कर अकेले में समझाते हैं,-“बेटा यह लो ४० हजार ₹, इन्हें तुरंत जाकर अपने नाम से बैंक में जमा करवा दो। तेरे दोनों बड़े भाई अपने पाँव पर खड़े हो गए हैं। तुझे अभी पढ़ना भी है, शादी भी करनी है और उसके साथ-साथ घर भी बनाना है। इसलिए यह पैसा मैं तुझे इन दोनों के बराबरी के हिस्से से हटकर अपनी मर्जी से अधिक दिए जा रहा हूँ। मेरे मरने के बाद वे लोग इसका भी बराबर हिस्सा करेंगे। इन्हें रख लो। किसी को कुछ मत बताना।” यह कहते-कहते पिता जी की आँखों से आँसू निकल आए थे।
मैं उन दिनों में कॉलेज में पढ़ता था। बी.ए. का दूसरा वर्ष था। मैंने पिता की इस पेशकश को अपने बड़े भाइयों के साथ अन्याय होने की बात कहकर नकार दिया। जब मैंने पिता जी से यह कहा कि,-“पिता जी मेरी चिंता करना छोड़ दो। अपनी सेहत का ख्याल रखो। तुम्हें कुछ नहीं होगा। और फिर मुझे अपने भाइयों पर पूरा भरोसा है। अगर वे भी मेरा साथ छोड़ देते हैं, तो ऊपर वाला तो है ही ना पिता जी।” यह सुनकर पिताजी गदगद हो उठे। मुझसे कहने लगे,-“बेटा इस घोर कलियुग में किसी का कोई भरोसा नहीं है। एक बात को गाँठ में बांध देना। घर में आने वाले हर एक मेहमान और प्राणी को भूखे मत जाने देना। दुश्मन भी दरबार में आ जाए तो उसे भी रोटी खिलाकर के ही भेजना। कुत्ता भी घर से भूखा न जाए। इस बात का ख्याल रखना। बाकी भगवान सचमुच तुम्हें कमी नहीं होने देगा। ऐसे नेक खयालात बहुत कम लोगों में होते हैं। भगवान जरूर तुम्हारी मदद करेगा।” यह कहते हुए पिता जी ने वे ₹ अपने तकिए के नीचे डाल दिए। ये शब्द कहने की न जाने पिता जी को कहाँ से और क्यों सूझी ?
शाम को मेरे बड़े भैया पिता जी से मिलने आए। पिताजी ने वह घटना उन्हें भी बता दी। बड़े भैया ने तब तो मुझे वह नहीं बताई, पर जब एक महीना बाद पिताजी स्वर्ग सिधार गए तो उन्होंने परिवार के सामने उस बात को रखा। सभी की संवेदनाएं मुझ पर उमड़ आई। समय बदला, परिस्थितियाँ बदली। पिता जी की मृत्यु के ५ साल बाद मंझले भैया भी स्वर्ग सिधार गए। घर में बंटवारा हो गया। आज भी मुझे पिता जी के मूल शब्द हर उस घड़ी याद आ जाते हैं, जब मेरे घर में कोई मेहमान या फिर जीव-जंतु भटकता हुआ पहुँचता है। मैंने यह बात अपने बेटों को भी बताई। अब मेरे बेटे भी द्वार पर किसी कुत्ते के आने पर भी मुझे आवाज दे देते हैं, -“पापा बाहर कुत्ता आया है। रोटी दे दूं क्या ?” ये शब्द कहने से पहले ही वे अंदर से रोटी अपने हाथ में पहले ही ले आए होते हैं। सच कहूं तो ये शब्द सुनकर के मेरे दिल को घना सुकून होता है। ऐसा लगता है मानो पिता जी की नसीहत मेरे खानदान में समा गई है। पते की बात कहता हूँ कि, सचमुच बड़े से बड़ी मुश्किल मैंने जीवन में देखी, पर कमी कभी महसूस नहीं की। घनी आफत में भी कोई न कोई मददगार या रास्ता मिल ही जाता है। तब लगता है कि, यह सब पिता जी की आज्ञा पालन का ही फल है।
