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बादल और चाँदनी

 

ऋचा गिरि
दिल्ली
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कल बादल को चलते देखा,
आँगन से शाम ढलते देखा
चाँदनी से आँख-मिचौनी खेल,
फिर जल्दी-जल्दी चलते देखा।

पल आँखों से ओझल हो,
दूर जा भेष बदलते देखा
तारे गवाही दे रहे थे कि,
आप-आप में खलते देखा।

चाँदनी से विरह होने का,
शायद उसको गम था
हाँ, फिर वह जाकर रोया,
तोड़ा जो वो वचन था।

विकल चाँदनी सोच रही,
क्या कोई प्रणय, कम था!
कहाँ गया वो कैसा होगा,
या और कोई हमदम था।

चाँदनी निकल गई और, पूछा,
क्या मेघदूत को फिरते देखा!
सहस्त्र फुट ऊँचाई पर, जा,
गरज-गरज कर घिरते देखा।

समझ गई चाँदनी मेघ की लीला,
जब इस विरह को सहते देखा।
छोटी वेदना, बड़ा था गौरव,
जब कर्म पथ पर चलते देखा॥