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अंग्रेजी या अन्य भाषा हमारी भाषाओं का स्थान नहीं ले सकती

-भारतीय भाषाओं में चिकित्सा शिक्षा का प्रारंभ:वैश्विक हिंदी ई-संगोष्ठी
-गोष्ठी में विशेष रूप से शामिल हुए जापान के विद्वान तोमियो मिजोकामी

इंदौर/दिल्ली।

अपनी भाषा में शिक्षा का अर्थ यह नहीं है कि हम अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा के विरोध में हैं, लेकिन यह भाषाएं हमारी भाषाओं का स्थान नहीं ले सकती।
यह विचार दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एवं डॉ. निरंजन कुमार ने महात्मा गांधी के मातृभाषा में शिक्षा संबंधी विचारों को उद्धृत करते हुए व्यक्त किए। अवसर रहा भारत के गृह मंत्री अमित शाह द्वारा भोपाल (मप्र) में रविवार को हिंदी माध्यम से चिकित्सा शिक्षा की पुस्तकों के विमोचन व भारतीय भाषाओं के माध्यम से चिकित्सा शिक्षा के मार्ग के प्रशस्तिकरण की पूर्व संध्या पर वैश्विक हिंदी सम्मेलन (मुम्बई) तथा हिंदीभाषा डॉट कॉम (इंदौर) द्वारा वैश्विक ई-संगोष्ठी के आयोजन का, जिसका प्रारंभ डॉ. कुमार ने किया।
विषय प्रवर्तन और संगोष्ठी का संचालन सम्मेलन के निदेशक डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’ ने किया। भोपाल स्थित अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विवि के संस्थापक व पूर्व कुलपति डॉ. मोहनलाल छीपा ने इस अवसर पर बताया कि किस प्रकार उन्होंने अभियांत्रिकी व चिकित्सा शिक्षा हिंदी में दिए जाने के लिए निरंतर प्रयास किए।
पुणे से संगोष्ठी में उपस्थित मराठी भाषा सेनानी और गणित शिक्षक अनिल गोरे ने कहा कि महत्वपूर्ण बिंदु वह है जो डॉ. गुप्ता ने रखा है कि हम भारतीय भाषाओं में शिक्षा की मांग को कैसे आगे बढ़ाएँ। उन्होंने कहा कि मातृभाषा से पढ़ने वाले विद्यार्थियों से यह पूछा जाना चाहिए कि वह किस भाषा में उच्च शिक्षा पाना चाहते हैं ?
ऑस्ट्रेलिया के विवि में अभियांत्रिकी प्रबंधन के विभागाध्यक्ष प्रो. सुभाष शर्मा ने कहा कि उनकी स्कूली शिक्षा पूरी तरह हिंदी माध्यम से हुई थी। प्रारंभ से ही उनका रुझान हिंदी की तरफ अधिक होने से बहुत अच्छी अंग्रेजी नहीं बोल पाते थे। तब उनके प्रोफेसरों ने कहा था कि हम इनको अंग्रेजी के कारण महत्व नहीं देते, बल्कि इनकी विशिष्ट व वैज्ञानिक सोच को महत्व देते हैं। महत्वपूर्ण किसी भाषा का ज्ञान नहीं, बल्कि नई मौलिक सोच होती है। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी पढ़ना गलत नहीं है, हमें अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाओं का भी ज्ञान होना चाहिए। लिखित शिक्षा का माध्यम तो अपनी भाषा ही होनी चाहिए।
गुजरात से जुड़े प्रतिभागी चिराग पटेल ने हिंदी माध्यम से प्रदान की जाने वाली शिक्षा का स्वागत करते हुए कहा कि, जब गुजरात में गुजराती माध्यम से अभियांत्रिकी की शिक्षा शुरू की गई तो ४००-५०० सीट होने के बावजूद भी केवल १ विद्यार्थी ने ही प्रवेश लिया था। उनका कहना था कि आवश्यकता इस बात की है कि, भारतीय भाषाओं में शिक्षा के लिए मांग उत्पन्न न की जाए।
सम्मेलन के उपाध्यक्ष निर्मल पाटोदी ने कहा कि, मोदी जी को चाहिए कि वे मध्यप्रदेश की तर्ज पर अन्य भाजपा शासित राज्यों में भी राज्यों की भाषा में उच्च शिक्षा प्रारंभ करें।
प्रभावी संचालन करते हुए निदेशक डॉ. गुप्ता ने कहा कि यदि सरकार द्वारा भारतीय भाषाओं के माध्यम से उच्च शिक्षा के साथ-साथ भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ने वाले विद्यार्थियों के रोजगार की व्यवस्था नहीं की जाती है, तो यह कहना कठिन है कि यह प्रयास किस हद तक सफल हो सकेगा। डॉ. गुप्ता ने सुझाव दिया कि सरकार द्वारा न केवल सरकारी नौकरियों में इन्हें प्राथमिकता दी जाए, बल्कि निजी क्षेत्र को भी इन्हें प्राथमिकता के आधार पर नौकरी देने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
संगोष्ठी में सुप्रसिद्ध चिकित्सक मनोहर लाल भंडारी, प्रौद्योगिकीविद संक्रांति सानू जैसे विद्वानों ने भी श्रोता के रूप में सहभागिता की। शामिल श्रोताओं में हिंदीभाषा डॉट कॉम के रचनाशिल्पी प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे, श्रीमती आशा जाखड़, श्रीमती मनोरमा जोशी ‘मनु’ सहित असद खान व श्रीमती अर्चना पंडित ने भी विचार प्रस्तुत किए। संगोष्ठी में पोर्टल की उप-सम्पादक श्रीमती अर्चना जैन की सक्रिय उपस्थिति में अनेक राज्यों-शहरों से रचनाकार और हिंदीप्रेमी श्रोतागण भी जुड़े एवं हिंदी की महती जानकारी प्राप्त की।
वैश्विक संगोष्ठी का संयोजन और आभार हिंदीभाषा डॉट कॉम के संस्थापक-सम्पादक अजय जैन ‘विकल्प’ द्वारा व्यक्त किया गया। स्वागत संबोधन एवं समन्वय पोर्टल की संयोजक तथा पत्रकारिता अध्ययनशाला (देअविवि, इंदौर) की विभागाध्यक्ष डॉ. सोनाली नरगुंदे ने किया।


अंग्रेजी का ज्ञान-विज्ञान होता तो जापान उपलब्धियाँ हासिल नहीं कर सकता था

गोष्ठी में विशेष रूप से शामिल हुए जापान के विद्वान तोमियो मिजोकामी से डॉ. गुप्ता ने कहा कि भारत में यह बड़ी अजीब स्थिति है कि इस विषय पर चर्चा करनी पड़ेगी कि अपनी भाषा में पढ़ाई क्यों और कैसे हो ? उनका कहना था कि अपनी भाषा में शिक्षा तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यदि अंग्रेजी भाषा का ज्ञान-विज्ञान होता तो जापान उपलब्धियां हासिल नहीं कर सकता था। अमेरिका के बाद सर्वाधिक २८ नोबेल पुरस्कार जापान द्वारा ही जीते गए हैं, और इनमें २५ शोधकर्ता ऐसे थे जिनकी शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से हुई थी। उनमें से कई नोबेल पुरस्कार प्राप्त करते हुए कहा कि, उन्हें अंग्रेजी नहीं आती। उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि भारत नोबेल पुरस्कार जीते और उस मंच पर वह अपनी बात भी अपनी भाषा में रखे।

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