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अन्तर ज्वाला धधक रही

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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शल्थ हो चुकी है बाहर की लपटें,
फिर भी अन्तर ज्वाला धधक रही है
हर गाँव-गाँव और शहर-शहर में,
नफरत की आग आज भभक रही है।

बहता विकार आज दरिया की मानिंद,
प्यार बरसाती नालों-सा है सिकुड़ गया
उड़ा रही है सब ईर्ष्या-द्वेष की आंधी,
रहा शेष कहां अब रहमो-करम और दया ?

भीगे चुनर से लालसा है नाचती,
ममता का घूंघट ही फाड़ दिया
परहित का वर्चस्व है खत्म किया,
आज झण्डा स्वार्थ का गाड़ दिया।

मानव से छीन ली मानवता है सारी,
है शैतानियत का उसने श्रंगार किया
मदहोशी का है यूँ आलम कुछ ऐसा,
मानो सबने है मादक मय पान किया।

कल-कल बहती नदियों की भांति,
आज वितृप्त वासनाएं बहती है
तृप्ति के भाव-प्रेम के सोते सूखे,
पतन की गाथा मानवता कहती है।

विकार की आंधी,वासनाओं की बयार से,
हर हृदय में अन्तर ज्वालाएं धधक रही है
निरन्तर बरसते आधुनिक ज्ञान के मेघ पर,
कामनाओं की आग तब भी भभक रही है।

मालूम नहीं यह युग का प्रभाव है या,
है मानव की अक्ल पर पत्थर पड़े।
महफूज नहीं है आबरू बहू-बेटी की,
पग-पग पर है बहरूपिए लुटेरे खड़े॥

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