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हम कैसे मनाएं ‘हिंदी दिवस’

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
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हर १४ सितम्बर को देश में ‘हिंदी दिवस’ मनाया जाता है। ज़रा हम पता तो करें कि सवा अरब के इस देश में कितने लोगों को मालूम है कि १४ सितम्बर को हिंदी दिवस होता है। आम आदमी का उससे कोई लेना-देना नहीं होता। सरकारी दफ्तरों में भी वह वार्षिक कर्मकांड बन गया है। किसी अफसर,किसी छोटे-मोटे नेता या किसी हिंदीसेवी को बुलाकर कुछ कर्मचारियों को हिंदी में काम करने के लिए पुरस्कार दे दिए जाते हैं। रटे-रटाए शब्दों में पिटे-पिटाए मुद्दों पर भाषण हो जाते हैं और फिर परनाला वहीं बहना शुरु हो जाता है।
अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक मंजे हुए स्वयंसेवक नरेन्द्र मोदी की सरकार है। क्या अब भी हिंदी दिवस इसी तरह मनता रहेगा ? हिंदी दिवस का महत्व हमारे स्वतंत्रता दिवस से भी अधिक है। भारत को स्वतंत्रता तो मिल गई,लेकिन स्वभाषा नहीं मिली। स्वभाषा के बिना हमारी स्वतंत्रता अधूरी है। हमारे पास तंत्र तो आ गया,लेकिन इसमें ‘स्व’ कहां है ? भाषा की गुलामी से भी बड़ी कोई गुलामी होती है क्या ? भाषा के कारण मनुष्य पहचाना जाता है,वरना मनुष्य और पशु में क्या अंतर होता है ? भारत का नागरिक मनुष्य की गरिमा से रहे,इसके लिए जरुरी है कि वह अपनी भाषा का प्रयोग करे। हर स्तर पर करे,हर जगह करे,हर समय करे। क्या यह सुविधा आज भारत में है ?,बिल्कुल नहीं है। हमारे नागरिक हिंदी और भारतीय भाषाओं का प्रयोग जरुर करते हैं,लेकिन क्या वे ऐसा हर स्तर पर,हर जगह और हर समय कर सकते हैं ? नहीं कर सकते हैं। यही वह फर्क है,जो आजाद देश को भी गुलाम बना देता है। जब भारत गुलाम था,तब भी हम लोग अपनी भाषाओं का प्रयोग करते थे। अब हमें आजाद हुए ६७ साल हो गए,पर इसके बावजूद हमारे सर्वोच्च न्यायालय में बहस और फैसले हिंदी में नहीं होते,संसद के कानून हिंदी में नहीं बनते,सरकार के मूल नीति-दस्तावेज हिंदी में नहीं बनते,संघ लोक सेवा आयेाग के पर्चे तक हिंदी में नहीं बनते और इस देश में चिकित्सकीय,अभियांत्रिकी, रसायन और भौतिकशास्त्र,कानून,विदेश नीति आदि का उच्च अध्ययन हिंदी में नहीं होता। देश में कोई भी महत्वपूर्ण काम हो,वह अंग्रेजी के बिना नहीं होता याने अंग्रेज तो चला गया लेकिन अपनी कुर्सी पर वह अपनी अम्मा को बिठा गया। गोरे अंग्रेज ने उसे सिर्फ कुर्सी पर बिठाया था,लेकिन हमारे काले अंग्रेजों ने उसे अपने दिलो-दिमाग पर बिठा लिया है।
आज देश में भाषा का परिदृश्य कैसा है ? अंग्रेजी मालकिन कुर्सी पर बैठी है और हिंदी नौकरानी उसके चरणों में लेटी है। जो नेता चुनाव के दौरान ‘मत’ हिंदी में मांगते हैं,वे सत्तारुढ़ होते ही नौकरशाहों की नौकरी करने लगते हैं। नौकरशाहों की भाषा अंग्रेजी है। नेताओं में इतना दम कहाँ कि वे नौकरशाहों को डपट सकें। नौकरशाहों को पता है कि यदि पूरा राजकाज हिंदी में चलने लगा तो देश में नौकरशाही की जगह लोकशाही स्थापित हो जाएगी। उनका जादू-टोना खत्म हो जाएगा। इसीलिए,वे हिंदी-दिवस बड़े जोर-शोर से मनाते हैं। हिंदी-दिवस वास्तव में नौकरशाहों का दिवस है। यह उनका कवच है। साल में एक दिन हिंदी दिवस मनाएं और पूरे साल प्रशासन में अंग्रेजी चलाएं। पहली बार देश में ऐसा प्रधानमंत्री आया है,जो विदेशों में भी जाकर हिंदी बोलता है और जिसने केन्द्र सरकार के दफ्तरों को हिंदी में काम करने के स्पष्ट निर्देश दिए हैं, लेकिन साढ़े पांच साल बीत जाने पर भी सरकार में हिंदी वहीं खड़ी है,जहां वह अंग्रेज के वक्त खड़ी थी,पर अंग्रेजी अब सरकारी दफ्तरों से निकलकर हमारे घर,द्वार और बाजार में भी घुस गई है। क्या आपको कहीं किसी घर में अपने माँ-बाप के लिए ‘माताजी’ या ‘पिताजी’ संबोधन सुनने में आता है ? हर पत्नी आजकल ‘वाइफ’ कही जाती है और माँ-बाप ‘मम्मी-डैडी’ बन गए हैं। शब्द कोरे शब्द नहीं होते। उनमें अर्थों की गहराइयां छुपी होती हैं। अपने सगे-संबंधियों के लिए जब हम हिंदी शब्दों का प्रयोग करते हैं तो अपने संबंधों का ठीक-ठीक वर्णन करते हैं और उन संबंधों की मर्यादा भी स्पष्ट करते हैं लेकिन अंग्रेजी के शब्द सब कुछ गड्ड-मड्ड कर देते हैं। ‘ब्रदर-इन-लाॅ’ का मतलब दोनों हैं। साला भी और जीजा भी। ‘सिस्टर-इन-लाॅ’ दोनों हैं, साली भी और ननद भी,और अंकल के तो कहने ही क्या ? चाचा,ताऊ,फूफा,दादा,गुरु,मालिक,नौकर,नेता-सभी अंकल हैं। तात्पर्य यह है कि अंग्रेजी ने सरकार को ही नहीं,हमारे समाज को भी डस लिया है।
इस रहस्य को समझे बिना हमारे नेता लोग हिंदी-दिवस मनाते हैं और सरकारी दफ्तरों का समय नष्ट करते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हम विदेशी भाषाओं के विरोधी हैं। यदि हमारे बच्चे स्वेच्छा से विदेशी भाषाएं सीखें तो उसका भरपूर स्वागत होना चाहिए। मैंने हिंदी और संस्कृत के अलावा जर्मन, रुसी और फारसी भी सीखी। अंग्रेजी तो जबर्दस्ती सीखनी ही पड़ी। अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अपने शोध कार्य में मैंने सभी भाषाओं का लाभ लिया। देश के लिए जितनी खिड़कियां खुलें,उतना अच्छा है,लेकिन सिर्फ अंग्रेजी लादने का अर्थ है,शेष सभी खिड़कियां बंद कर देना। यदि वर्तमान सरकार वास्तव में राष्ट्रवादी-सरकार बनना चाहती है तो उसे अंग्रेजी की अनिवार्यता हर जगह से खत्म करनी चाहिए। यदि मोदी सरकार देश में करोड़ों लोगों तक बैंकों का जाल फैलाना चाहती है तो उसे उन्हें भारतीय भाषाओं में काम करने के लिए बाध्य करना होगा। पाठशालाओं,अदालतों,विधानसभाओं,फौज,सरकारी भर्तियों और काम-काज में अंग्रेजी पर कठोर प्रतिबंध होना चाहिए। अत्यंत अपवाद के तौर पर ही उसकी अल्पावधि अनुमति होनी चाहिए।
यह तो हुआ सरकार का दायित्व,लेकिन सिर्फ सरकार के सक्रिय होने से काम नहीं बनेगा। जब तक जनता सचमुच हिंदी दिवस नहीं मनाएगी,हिंदी न तो सरकार में आएगी और न ही देश में आएगी। हिंदी दिवस पर देश के करोड़ों लोगों को संकल्प करना चाहिए कि वे अपने हस्ताक्षर हिंदी में या अपनी भाषा में ही करेंगे। सरकारें चाहें तो वे इस आशय के नियम अपने अफसरों पर लागू कर सकती हैं। देश के बाजारों में सारे नामपट हिंदी और भारतीय भाषाओं में होने चाहिए। लोग अपने कार्यक्रमों,शादियों,समारोहों के निमंत्रण,अपने पत्र-शीर्ष,अपने परिचय-पत्र,अपना पत्र-व्यवहार आदि अपनी भाषा में करें। अपने बच्चों से और आपस में बातचीत भी अपनी भाषा में करें। अपने मोबाइल फोन और कम्प्यूटर पर भी स्वभाषा का प्रयोग करना शुरु करें। बड़े-बड़े उद्योगपतियों और व्यवसायियों को चाहिए कि वे अपने विक्रय चिन्ह,विज्ञापन और सारा काम-काज स्वभाषाओं में करें।
अपनी भाषा में दुनिया की सभी भाषाओं से शब्द लेने की छूट होनी चाहिए,लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम हिंदी को भिखारी भाषा बना दें। आजकल कई टी.वी. चैनलों और अखबारों में कई बार ऐसे वाक्य सुनने और पढ़ने में आते हैं,जिनमें अंग्रेजी के शब्दों के बिना वे वाक्य पूरे ही नहीं होते। अंग्रेजी शब्द जबर्दस्ती ठूंस दिए जाते हैं। अपनी भाषा को जितना शुद्ध और स्वाभाविक रखा जा सके,उतना अच्छा! यदि हम अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों,मुहावरों,कहावतों और शैलियों का प्रवेश हिंदी में करवा सकें तो वह राष्ट्रीय एकता और समरसता के लिए वरदान होगा। हिंदी-दिवस मनाने का अर्थ यह नहीं कि हम अहिंदीभाषियों पर हिंदी थोपने के पक्षधर हैं,कतई नहीं। भारत की समस्त भाषाएं समान सम्मान की अधिकारिणी हैं। जिस दिन हम हिंदीभाषी लोग अन्य भारतीय भाषाएं सीखना शुरु कर देंगे,हिंदी पूरे राष्ट्र की कंठहार बन जाएगी।

परिचय-डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

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