दिल्ली
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संत रविदास जयन्ती (१२ फरवरी) विशेष…
महामना संत रविदास कहो या रैदास-भारतीय संत परम्परा, भक्ति आन्दोलन और संत-साहित्य के जहां महान् हस्ताक्षर है, वहीं वे अलौकिक-सिद्ध संत, समाज सुधारक व साधक हैं। दुनियाभर के संत-महात्माओं में उनका विशिष्ट स्थान है। सद्गुरु रामानंद के पारस स्पर्श ने चर्मकार रैदास को भारत वर्ष का महान चमत्कारी एवं सिद्धात्मा संत बना दिया था। इन्होंने ‘निर्गुण रंगी चादरिया रे, कोई ओढ़े संत सुजान’ को चरितार्थ करते हुए सद्भावना और प्रेम की गंगा को प्रवाहित किया। ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ यह संत शिरोमणि रैदास जी द्वारा कहा गया अमर सूक्ति भक्ति दोहा है, जो आज भी भारत के घर-घर में लोकप्रिय है। वे कबीर के समसामयिक कहे जाते हैं। उन्होंने जीवनपर्यन्त छुआ-छूत, ऊँच-नीच व जातिवाद जैसी कुरीतियों का विरोध करते हुए समाज में फैली तमाम बुराइयों के खिलाफ पुरजोर आवाज उठाई और निरन्तर कार्य करते रहे। समस्त भारतीय समाज को भेदभाव से ऊपर उठकर मानवता और भाईचारे की सीख देने वाले १५वीं सदी के समाज सुधारक संत रैदास जी को जो चेतना प्राप्त हुई, वह तन-मन के भेद से प्रतिबद्ध नहीं है, मुक्त है। उन्होंने अपनी सिद्धियों के जरिए समाज में व्याप्त आडम्बरों, अज्ञानता, झूठ, मक्कारी और अधार्मिकता का भंडाफोड़ करते हुए समाज को जागृत करने व नई दिशा देने का प्रयास किया।
रैदास जी ने समता और समरसता की शिक्षा भी दी, और हमेशा दलितों, वंचितों की विशेष रूप से चिंता भी की। स्पष्ट है कि रैदास जी जैसे महान भक्त जाति, क्षेत्र तथा व्यवसाय आदि बंधनों से मुक्त थे। इसलिए रैदास जी हर वर्ग के लोगों के लिए पूजनीय है। श्रीकृष्ण, श्रीराम, महावीर, बुद्ध के साथ-ही-साथ भारतीय अध्यात्म आकाश के अनेक संतों-आदि शंकराचार्य, नानक, मीरा आदि की परम्परा में रविदास जी ने भी धर्म की त्रासदी एवं उसकी चुनौतियों को समाहित करने का अनूठा कार्य किया। अपनी कथनी और करनी से मृतप्रायः मानव जाति के लिए रविदास जी ने संजीवनी बूटी का कार्य किया। इतिहास गवाह है कि इंसान को ठोंक-पीट कर इंसान बनाने की घटना रविदास जी के काल में, रविदासजी के ही हाथों, उनकी रचनाओं-विचारों एवं कार्याें से हुई।
गुरु रविदास का जन्म माघ मास की पूर्णिमा को रविवार के दिन हुआ था। मध्यकाल की प्रसिद्ध संत मीराबाई भी रविदास जी को अपना आध्यात्मिक गुरु मानती थीं। रविदास जी ने लोगों को एक नई राह दिखाई कि गृहस्थ जीवन जीते हुए भी शील-सदाचार और पवित्रता का जीवन जिया जा सकता है तथा आध्यात्मिक ऊँचाइयों को प्राप्त किया जा सकता है। अपनी सामान्य पारिवारिक पृष्ठभूमि के बावजूद भी रविदास जी भक्ति आंदोलन, हिंदू धर्म में भक्ति और समतावादी आंदोलन में प्रमुख पुरोधा पुरुष के रूप में उजागर हुए।
जूते बनाने का कार्य करने वाले संत रैदास ने आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित करने के लिए समाधि, ध्यान और योग के मार्ग को अपनाते हुए असीम ज्ञान प्राप्त किया। अपने इसी ज्ञान के जरिए पीड़ित मानवता, समाज एवं दीन-दुखियों की सेवा में जुट गए। जूते बनाने के कार्य से उन्हें जो भी कमाई होती, उससे वे संतों की सेवा किया करते और उसके बाद जो कुछ बचता, उसी से परिवार का निर्वाह करते थे। रैदास जी श्रीराम और श्रीकृष्ण भक्त परम्परा के कवि और संत माने जाते हैं। उनके प्रसिद्ध दोहों पर कई धुनों में भजन भी बनाए गए हैं। जैसे,-प्रभुजी तुम चंदन हम पानी-इस प्रसिद्ध भजन को सभी गुनगुनाते हैं, क्योंकि उन्होंने कभी धन के बदले आत्मा की आवाज को नहीं बदला तथा शक्ति और पुरुषार्थ के स्थान पर कभी संकीर्णता और अकर्मण्यता को नहीं अपनाया। रैदास जी के उच्च आदर्श, उनकी वाणी, भक्ति एवं अलौकिक शक्तियों से प्रभावित होकर अनेक राजा-रानियों, साधुओं-महात्मा तथा विद्वज्जनों ने उनको सम्मान दिया है। जब भारतीय समाज और धर्म का स्वरूप रूढ़ियों एवं आडम्बरों में जकड़ा एवं अधंकारमय था, तब संत गुरु रविदास ने रोशनी बनकर समाज को दिशा दी। वे ईश्वर को पाने का एक ही मार्ग जानते थे- ‘भक्ति’। हर जाति, वर्ग, क्षेत्र और सम्प्रदाय का सामान्य से सामान्य व्यक्ति हो या कोई विशिष्ट-सभी में विशिष्ट गुण खोज लेने की दृष्टि उनमें थी। गुणों, विश्वास और प्रेम के आधार से व्यक्तियों में छिपे सद्गुणों को वे पुष्प में से मधु की भाँति उजागर करने में सक्षम थे। परस्पर एक-दूसरे के गुणों को देखते व खोजते हुए उनको बढ़ाते चले जाना रविदास जी के सर्वधर्म समभाव या ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के दर्शन का द्योतक है।
पवित्रता, मानवीयता, सहिष्णुता आत्मनिर्भरता और एकता रैदास जी के मुख्य धार्मिक संदेश थे। सिख धर्म के अनुयायी भी गुरु रविदास के प्रति श्रद्धा भाव रखते हैं। यही कारण है कि रविदास जी की ४१ कविताओं को सिखों के पाँचवें गुरु अर्जुन देव ने पवित्र ग्रंथ आदिग्रंथ या गुरुग्रंथ साहिब में शामिल कराया था। रविदास जी ने शिक्षा के महत्व पर जोर दिया और शिष्यों को उच्चतम शिक्षा पाने के लिए प्रेरित किया।
रविदास जी ने समाज की दुखती रग को पहचान लिया था। वे जान गए थे कि हमारे सारे धर्म और मूल्य पुराने हो गए हैं। नई समस्याएँ नए समाधान चाहती हैं। नए प्रश्न, नए उत्तर चाहते हैं।
एक कथा के अनुसार रविदास जी बचपन में साथियों के साथ खेल रहे थे। एक साथी अगले दिन खेलने नहीं आता है तो रविदास जी उसे ढूंढ़ते हुए उसके घर तक पहुंच जाते हैं। उसके मृत शरीर को देखकर बहुत दुखी होते हैं और बोलते हैं कि “उठो ये समय सोने का नहीं है, मेरे साथ खेलो।” इतना सुनकर मृत साथी खड़ा हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि रविदास जी को बचपन से ही अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त थी। संत रविदास ने स्वयं को ही पग-पग पर परखा और निथारा। वह अपने और परमात्मा के मिलन को ही सब कुछ मानते थे, शास्त्र और किताबें उनके लिए निरर्थक और पाखण्ड था, सुनी-सुनाई तथा लिखी-लिखाई बातों को मानना या उन पर अमल करना उनको गवांरा नहीं था। उन्होंने जो कहा, अपने अनुभव के आधार पर कहा। यही कारण है कि उनके दोहे इंसान को जीवन की नई प्रेरणा देते थे। रविदास जी शब्दों का महासागर हैं, ज्ञान का सूरज हैं, बूँद-बूँद में सागर है और किरण-किरण में सूरज। मीरा बाई के आमंत्रण पर संत रैदास जी चित्तौड़गढ़ आ गए, लेकिन उनकी गंगा भक्ति तनिक भी कम नहीं हुई। वहीं पर उनका १२० वर्ष की आयु में निर्वाण हुआ। भारतीय सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक परिवेश में रैदास जी गंगा भक्ति इतिहास में एक अमिट आलेख एवं सुनहरा पृष्ठ है।