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इटावा में सर्वोच्च न्यायपालिका के सम्मुख जनभाषा में न्याय पर दो टूक

निदेशक डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’ को दिया अमृत महोत्सव सम्मान

इटावा (उप्र)।

कार्यक्रम स्थल सहित पूरे क्षेत्र में पुलिस और कमांडो तैनात थे। पुलिस और प्रशासन के बड़े-बड़े अधिकारियों की गाड़ियां इधर से उधर घूम रही थी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के हिंदी में न्याय के लिए विख्यात पूर्व न्यायमूर्ति स्व. प्रेम शंकर गुप्त द्वारा स्थापित इटावा हिंदी सेवा निधि के तीसवें वार्षिक अधिवेशन के भव्य कार्यक्रम का मंच सज चुका था। मुख्य अतिथि के रुप में उपस्थित सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश कृष्ण मुरारी तथा विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित ऐतिहासिक निर्णय के लिए विख्यात इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायमूर्ति और राष्ट्रीय हरित अधिकरण के न्यायिक सदस्य न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और उपभोक्ता आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति अशोक गुप्त, हिंदी में न्याय देने के लिए विख्यात इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति गौतम चौधरी सहित अनेक अधिवक्तागण, अनेक न्यायमूर्ति कई पूर्व सांसद शासन-प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी, राजनीतिक महानुभाव, साहित्यकार आदि अपना स्थान ले चुके थे।
प्रारंभ पुरस्कार वितरण समारोह से हुआ। पुरस्कार प्राप्तकर्ता में प्रख्यात कवि पद्मश्री लीलाधर जगुड़ी को न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त राष्ट्रीय जनवाणी सम्मान, न्यायमूर्ति श्री चौधरी, पूर्व सांसद व साहित्यकार उदय प्रताप सिंह, हिंदी के प्रति समर्पित राष्ट्रीय जनता दल के पूर्व सांसद राजनीति प्रसाद, सपा नेता व विचारक सुधींद्र भदौरिया, सामाजिक कार्यकर्ता रंजना कुमारी आदि सहित जाने-माने लोगों के साथ-साथ मुझे अमृत महोत्सव सम्मान प्रदान किया गया।
स्वागत समारोह के पश्चात जाने-माने हिंदी सेवी, संस्था के महासचिव व इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रदीप गुप्त ने स्वागत संबोधन प्रस्तुत किया। अपने स्व. पिता न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त के हिंदी के प्रचार-प्रसार के संकल्प को निरंतर आगे बढ़ाने की बात रखी। एक के बाद एक वक्तागण हिंदी के पक्ष में अपनी बात रख रहे थे। अचानक मेरा भी नाम पुकारा गया। मुझसे पूर्व वक्ता सुधींद्र भदौरिया ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के प्रति राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के समर्पण और योगदान और उसके पश्चात उन्होंने विख्यात समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया और उसके पश्चात मुलायम सिंह यादव के योगदान का भी स्मरण किया था। मुझे लगा यहीं से शुरूआत करना बेहतर होगा। मैंने वक्तव्य से सहमति प्रकट करते हुए कहा, ‘निश्चय ही महात्मा गांधी ने मातृभाषा राष्ट्रभाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के प्रति जो कार्य किया वह शायद किसी हिंदी साहित्यकार ने भी न किया होगा, मैं महात्मा गांधी जी को नमन करता हूँ।‘ आगे मैंने कहा, ‘आजादी के समय देश के ९९ फीसदी से भी बहुत अधिक लोग मातृभाषा में ही पढ़ते थे। जब हम शाला में गए, तब भी दिल्ली जैसे महानगर में अंग्रेजी माध्यम का विद्यालय कहाँ होता है, हमें पता नहीं था। जब एम.ए. की पढ़ाई कर रहे थे, तब भी दिल्ली विश्वविद्यालय में एम.ए. तक की पढ़ाई हिंदी माध्यम से होती थी। इसलिए अभिनंदन तो गांधी जी के उन अनुयायियों का भी होना चाहिए जिन्होंने राजभाषा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम को मिटाते हुए नर्सरी माध्यम तक और गाँव-गाँव तक अंग्रेजी माध्यम को पहुंचा दिया।‘
वहाँ कई समाजवादी नेता व चिंतक बैठे हुए थे इसलिए मुझे लगा कि अब समाजवादियों की बात भी हो ही जानी चाहिए। मैंने डॉ राम मनोहर लोहिया और उनके साथ उनके साथ-साथ स्व. सपा नेता मुलायम सिंह यादव की भारतीय भाषाओं की विचारधारा, आंदोलन और योगदान को नमन किया। फिर समाजवादी नेताओं और चिंतकों को इंगित करते हुए पूछा, ‘प्रश्न तो यह है कि अब समाजवादी नेता हिंदा या जनभाषा की बात क्यों नहीं करते ? जनभाषा में न्याय, शिक्षा और रोजगार की बात क्यों नहीं करते ? अब वे हिंदी को क्यों भूल गए हैं ?’ समारोह में ऐसे प्रश्न पूछ लिए जाएँगे, ऐसी कल्पना इन नेताओं को न थी। वे मुस्कुरा कर रह गए।
क्योंकि मंच पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री मुरारी विराजमान थे और उनके समकक्ष स्तर के न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल भी बैठे थे। न्याय क्षेत्र के अनेक महानुभाव उपस्थित थे इसलिए जनभाषा में न्याय की बात पुरजोर ढंग से रखना आवश्यक था।
मैंने अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहा कि मैं कानून का विद्यार्थी तो नहीं, लेकिन एक सामान्य व्यक्ति के तौर पर जो प्रश्न मेरे मन में बसते हैं वे मैं माननीय न्यायमूर्तियों के सम्मुख रखना चाहता हूँ। फिर निम्नलिखित कुछ प्रश्न रखे।
क्योंकि हम उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में न्याय के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करते समय संविधान के अनुच्छेद ३४८ की बात करते हैं इसलिए मैंने पहला प्रश्न रखा कि मैं मुझे समझ नहीं आता कि इस देश के लोग संविधान के लिए हैं या संविधान इस देश के लोगों के लिए है ?
जनतंत्र भारत के संविधान की आत्मा है। जो भी है वह जनहित के लिए, जनता के लिए है। तो फिर न्यायपालिका जनता की भाषा स्वीकार क्यों नहीं करती ? क्या वह जनतंत्र से ऊपर है ?
संविधान का अनुच्छेद ३४३ कहता है कि हिंदी भारत संघ की राजभाषा है। मेरी समझ के अनुसार न्यायपालिका भारत संघ का घटक है। यदि न्यायपालिका भारत संघ का एक अंग है तो वह अनुच्छेद ३४३ के अनुसार भारत संघ की राजभाषा को क्यों नहीं मानता ? क्या भारत की न्यायपालिका भारत संघ से अलग या उससे ऊपर है ?
अनुच्छेद ३४५ के अनुसार राज्य के कानून के अंतर्गत राज्य की भाषा निर्धारित की गई है लेकिन ४ उच्च न्यायालयों को छोड़ सबमें तो अंग्रेजी ही चलती है। भारत के उच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद ३४५ के अनुसार राज्य के लोगों की भाषा मैं अपील और सुनवाई क्यों नहीं करते ?
उससे भी महत्वपूर्ण यह है कि अनुच्छेद ३४८ में यह उपबंध है कि किसी राज्य के राज्यपाल की अधिसूचना के पश्चात राष्ट्रपति उस राज्य के उच्च न्यायालय में उस राज्य की राजभाषा की प्रयोग की अनुमति दे सकते हैं, लेकिन पूर्ववर्ती सरकारों ने उसमें सर्वोच्च न्यायालय से पूछने का अड़ंगा लगा रखा है। गुजरात, तमिलनाडु और बंगाल आदि राज्य अपने राज्य के उच्च न्यायालय में अपनी भाषा की माँग कर रहे हैं लेकिन सर्वोच्च न्यायालय है कि वह उसे भी मानता नहीं, क्योंकि वह जनता की भाषा जानता नहीं ? जबकि संविधान में ऐसा कुछ है भी नहीं। यह तो अनुच्छेद ३४८ के भी प्रतिकूल है।
संविधान का अनुच्छेद ३५१ संघ को हिंदी के प्रसार वृद्धि का निर्देश देता है, ताकि हिंदी भारत की सामाजिक संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके, लेकिन हमारा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय अनुच्छेद ३५१ को भी नहीं मानते क्योंकि वे जनता की भाषा नहीं जानते।
अपने मन की बात मंच से सुनकर उपस्थित जन समुदाय निरंतर करतल ध्वनि से अपनी खुशी व समर्थन व्यक्त कर रहा था। न्यायपालिका और राजनीति से जुड़े लोग मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे।
अब मैंने जनता के पक्ष को रखते हुए कहा, ‘आजादी के ७५ वर्ष पूरे हो चुके हैं और देश के लगभग १३९ करोड लोग प्रतीक्षा में है कि उन्हें कब इस देश में अपनी भाषा में न्याय मिलेगा ? लगभग १ करोड़ को इसलिए छोड़ दिया कि शायद वे अंग्रेजीदां लोग होंगे जो अंग्रेजी में ही जीते होंगे। मैं देश की न्यायपालिका से अनुरोध करता हूँ कि वह जनहित के लिए, जनतंत्र के लिए, जनता के न्याय के लिए स्वतः संज्ञान ले ताकि देश के लोगों को अपनी भाषा में न्याय मिल सके। मैं यहाँ बैठे तमाम विद्वानों और नेताओं से अनुरोध करता हूँ कि वे जनभाषा में न्याय, शिक्षा और रोजगार के लिए सामने आएँ। और यहाँ उपस्थित सभी से मेरा अनुरोध है कि वे जनभाषा में न्याय, शिक्षा और रोजगार के लिए पुरजोर अपनी आवाज़ उठाएँ।‘
उसके पश्चात तो प्रायः सभी वक्ताओं ने इन्हीं मुद्दों पर अपनी बात रखी। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी ने कहा कि जो बात कही गई, उसका दूसरा भी पक्ष है कि हमारे देश में कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। न्यायाधीशों की स्थानांतरण एक जगह से दूसरी जगह होते हैं तो ऐसी स्थिति में अनेक कठिनाइयां होती हैं। उन्हें वहाँ की भाषा नहीं आती। इस दिशा में कुछ करना चाहिए।न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल पहले कह चुके हैं कि सभी बड़े अधिकारियों के बच्चों को यदि सरकारी शालाओं में ही पढ़ाया जाए तो शिक्षा का स्तर अपने आप सुधर जाएगा और उनके बच्चे भी देश और राज्य की भाषा सीखेंगे। यहाँ उन्होंने उसमें नेताओं को भी ले लिया और कहा कि आजकल आरक्षण नेताओं का प्रिय विषय है, तो क्यों न आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों में सरकारी शालाओं में पढ़ने वालों को आरक्षण दिया जाए तो ये सब अपने आप सरकारी शालाओं में आ जाएँगे। और ऎसी अनिवार्यता चुनाव लड़ने के लिए भी होनी चाहिए। जनता ने करतल ध्वनि से उनकी हर बात का स्वागत किया।
कुल मिलाकर इटावा हिंदी सेवा निधि का यह अधिवेशन जनभाषा में न्याय, शिक्षा और रोजगार को लेकर अनेक प्रश्न खड़े कर गया। इससे क्या निकलेगा, यह कहना तो मुश्किल है लेकिन कम से कम एक आवाज तो उठी। जनता ने ही नहीं बल्कि उपस्थित विद्वानों, नेताओं, साहित्यकारों, कलाकारों और न्यायमूर्तियों ने भी कुछ विवशताएँ बताते- जताते हुए भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जनभाषा में न्याय की मांग का समर्थन ही किया।
अब समय आ गया है कि देश में जनभाषा में न्याय के लिए जनभाषा की और जनहित की बात करने वाले राजनीतिक दलों, सरकार व संसद द्वारा इस दिशा में अविलंब आवश्यक कदम उठाए जाएँ।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई)

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