डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे (महाराष्ट्र)
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कोहं से सोहं तक…
आइए, ईश्वर की खोज में ‘नेति-नेति’ करने का प्रयास करें। मैं कोई दार्शनिक नहीं, पर ईश्वर के अस्तित्व को हमेशा ही स्वीकारा है। उसे ढूँढा कभी एक अनाम शक्ति के स्वरूप में, तो कभी किसी सुन्दर मूर्ति में, परन्तु सोचती रही-कहाँ है वह ईश्वर, मंदिरों में, सुन्दर उपवन में, कल-कल बहती जलधारा में, गगनचुम्बी पर्वतों के शिखर पर, किसी बच्चे की किलकारी में या माता के अंचल में ? इन प्रश्नों का ताँता लगा ही है, क्या यह अनंत प्रश्नचिन्ह ही बन रहेगा ? क्या यह प्रश्न दूसरी प्रजातियों को भी हैरान करता है ? उत्तर मिला, उतना नहीं, जितना मानव को, सोच-विचार की शक्ति जो मिली है, उसे पुरस्कार में! यह प्रश्न कोई नया नहीं, प्राचीन-काल से इस पर विचारमंथन हो रहा है। आज एक विचारधारा के माध्यम से इसी प्रश्न के उत्तर की ओर अग्रसर होती हूँ।
हे ईश्वर तुम कौन हो, कहाँ हो, कैसे दिखते हो ? क्या मेरी तरह ही हो, अथवा मेरा प्रतिरूप हो ? मन-मंदिर में एक दिव्य तेजस्वी ज्योत प्रकाशमान हुई,-एक पारलौकिक स्वर कहने लगा- प्रयत्न करो उसे ढूंढने का, कहती रहो ‘नेति-नेति’ उपनिषदों का तत्व ज्ञान कहता है, ईश्वर क्या है, यह जानने के पहले, यह जानना आवश्यक है कि, ईश्वर क्या नहीं है, बस जो पवित्र और शुद्ध स्वर्ण की भांति सत्य बचा, वहीं ईश्वर है!!! मेरा शरीर, मेरा मन, मेरे विचार, मेरा दिमाग, मेरी भक्ति, मेरे कार्य,यह सब मुझसे अलग है। यहाँ तक कि, मेरी आत्मा यह सारी चीजें तो ‘मैं’ नहीं हूँ। हे ईश्वर फिर मैं कौन हूँ ? इन सबसे अलग जो मेरा नहीं, वही इस शरीर और मन-मंदिर में बसा हुआ ईश्वर का प्रतिरूप, मैं वही हूँ, एक शाश्वत शक्ति, जिस दिन अपने-आपमें बसा यह ‘मैं’ जान लूँ, बस ईश्वर को जान लूँ। मैं ईश्वर से अलग हूँ ही नहीं, ‘अहम् ब्रम्हास्मि’ अर्थात मैं ही हूँ ईश्वर का प्रतिरूप, परन्तु जिस तरह कस्तूरी मृग अपनी नाभि में स्थित कस्तूरी नहीं देख पाता और उस सुगंध की खोज में भागता है, हम उसी तरह ईश्वर को खोजते हैं। पूरी आयु निकल जाती है, मन की गहराइयों में स्थित आवाज भी धीमी हो जाती है, कर्मों की परतें चढ़ती जाती हैं और जग से लुप्त होने का समय आ जाता है। यह प्रश्न पूछने का फिर जन्म-जन्मांतर का फेरा चलता है, तब तक, जब तक कि, इस गूढ़ प्रश्न का उत्तर न मिले|
अब विषयवस्तु और इसी संदर्भ में एक विचार-कुछ १२०० वर्ष पहले ८ वर्ष का बालक नर्मदा किनारे पर गुरु की खोज कर रहा था। तब उसकी भेंट आचार्य गोविंद भगवत्पाद से हुई। उन्होंने बालक से प्रश्न किया “तुम कौन हो ?” तब उस बालक ने आचार्य को छह श्लोकों में उत्तर दिया।अर्थात इसके बाद आचार्य ने बहुत हर्ष से उसका शिष्य के रूप में स्वीकार किया। यह प्रसिद्ध उत्तर है ‘निर्वाण षट्कम’ और वह बालक यानि ‘निर्वाण षट्कम’ के प्रणेता जगतगुरु श्री आदि शंकराचार्य। इसका निचोड़ देखते हैं, अर्थात मैं क्या नहीं हूँ और क्या हूँ!
मैं मन, बुद्धि, अहंकार, अन्तःप्रेरित वृत्ति, पंचेंद्रिय (कान, नाक, जिव्हा,नयन और त्वचा), पंचतत्व (आकाश, पृथ्वी, अग्नि, जल तथा वायु) इनमें से कुछ भी नहीं हूँ| मैं प्राण-संज्ञा,
पंच-प्राण, सप्त-धातु (रस, रक्त, माँस,
मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र), पंचकोश (अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश तथा आनंदमय कोश) नहीं हूँ| मैं निष्कासन, प्रजनन,
सुगति, संग्रहण या वचन इनका भी माध्यम नहीं हूँ। मुझमें द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और ईर्ष्या जैसी कोई भावनाएँ नहीं हैं। मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष भी नहीं हैं।
मुझमें पुण्य-पाप या सुख-दुःख जैसी भावनाएँ नहीं। मैं मन्त्र, तीर्थ, वेद,
यज्ञ या त्रिसंयुज (भोजन, भोज्य, भोक्ता ) नहीं। मुझे मृत्य का भय नहीं है तथा स्वयं के बारे में किसी भी प्रकार का संदेह या जाति-भेद नहीं भी नहीं है। कोई भी मेरे पिता, माता, बंधु, मित्र, गुरु या शिष्य नहीं हैं। मैंने मूलतः जन्म ही नहीं लिया है! मैं संदेह-रहित, निर्विकल्प और आकार रहित हूँ! जो सर्वव्याप्त,
सर्वभूत, समस्त इंद्रिय-व्याप्त स्थित है, वहीं हूँ मैं! मुक्ति या बंधन में से मैं कुछ भी नहीं! तब भी मैं हूँ सब स्थानों पर (यत्र-तत्र-सर्वत्र)! मैं ही हूँ प्रत्येक वह सब कुछ, प्रत्येक क्षण में सम स्थित!
मैं हूँ वास्तविक चिरंतन आनंद और चिन्मय रूप शिव! जिस मंगल बेला में माता के पेट के अंदर स्थित ममता का आवरण चीर कर शिशु बाह्य जगत में प्रथम प्रवेश करता है, उस समय सब लोग, मुख्य रूप से चिकित्सक उस नवजात बालक के रुदन की बड़ी ही उत्सुकता से प्रतीक्षा (यह बात परे है कि, बड़े होने पर इसी बालक के रोने के परिणाम और परिमाण परिस्थिति अनुसार बदलते रहते हैं।) करते रहते हैं।
(प्रतीक्षा कीजिए अगले भाग की…)