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कश्ती भंवर में

 डॉ. कुमारी कुन्दन
पटना(बिहार)
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उफ ये मँहगाई मानो,
जान पर बन जाती है
मुश्किल से हर चीज,
हर एक को नसीब आती है
घर का खुशनुमा माहौल,
कलह पूर्ण हो जाता है
करता है सौ तूफान खड़े,
भुखमरी भी लेकर आता है।

टूटता है जिन्दगी का सम्बल,
कश्ती भंवर में नजर आती है
बच्चों की परवरिश, पढ़ाई,
आफत से टकराती है
गरीबों की हालत दिन पर,
दिन बद्तर होती जाती है
अमीर मँहगाई क्या जाने,
उन्हें कुछ याद ना आती है।

मानवता हो जाती है,
यदा-कदा शर्मसार वहां
जूठे पत्तल और कुत्तों के संग,
जब बच्चे दिखते दो-चार वहां
देखकर उनको लगता है,
जीने की कसम है खाई
जी भी लें जैसे-तैसे पर,
मंजिल हाथ ना आई।

कहते हैं हम इन्हें ये,
हमारे भविष्य की धरोहर
पर इन्हें तो दिखता होगा,
अपना भविष्य ही खंडहर
मँहगाई जरा, उनसे पूछे,
जो फुटपाथ पर सोते
धरती बना जिनका बिछौना,
अम्बर तान कर सोते।

पेट भरने पर, इतनी आफत,
तन ढकने को बगावत
पढ़ाई इन्हें नसीब कहां जब,
एक-एक पैसे पर आफत
कब सोते ये कच्ची नींद,
कब गहरी नींद ये सोते।
कल शायद हो आज से अच्छा,
इसी उम्मीद में पलते॥

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