सरोजिनी चौधरी
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
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आज मैंने बहुत दिन बाद,
खोली मन की आलमारी
न जाने कब से जमा हुई,
कचरे जैसी वो सोच थी हमारी।
बसाए थी मन में अपने,
सोच-सोच होती रहती थी दुखी
आज मैं सबको मन से बाहर,
निकाल हो गई सुखी।
कितना बोझ मैं सिर पर,
लिए घूमती थी
कभी शान्ति से बैठ कर,
नहीं इस विषय में सोचती थी।
ये नाते-रिश्तेदारों के व्यंग्य-बाण,
कहीं अन्दर तक छेद जाते
कई दिन उसी को सोचने, विचारने में यूँ ही निकल जाते।
मेरे तन-मन-प्राण सब एकसाथ,
विद्रोह से कहीं जाते थे भर
निकलो इन सबसे बाहर,
बीत रहा समय न कहीं जाए ठहर।
ये जो शेष बचा है ज़िंदगी का सफ़र,
बनाओ इसको मधुर वृंदावन
खिल-खिलाकर अपने व्यवहार से,
पुलकित करो घर-आँगन।
बन जाओ एक महका गुलाब,
सुरभित करो अपना घर-संसार।
देखो तुम्हारे व्यवहार से,
फले-फूलेगा अपनों का प्यार॥