गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
***********************************************
भारत के कुछ प्रदेशों में खासकर राजस्थान एवं सीमावर्ती मध्य प्रदेश में गणगौर (गण-शिव तथा गौर-पार्वती) पर्व होलिका दहन के दूसरे दिन चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से चैत्र शुक्ल तृतीया तक १८ दिनों तक मनाया जाता है। यह आस्था,प्रेम और पारिवारिक सौहार्द का सबसे बड़ा उत्सव है। चूँकि,बीते २ साल से ‘कोरोना’ महामारी के चलते यह उत्सव बन्द कमरे तक सीमित करना पड़ा था, इसलिए इस बार सभी जगह पूरे उत्साह व उमंग के साथ मनाया जा रहा है।
गण तथा गौर के इस पर्व में कुँवारी लड़कियाँ मनपसंद वर पाने की कामना करती हैं,अर्थात मनपसंद वर पाने की कामना लिए इस पर्व में पूजन के समय कुछ जगह रेणुका की गौर बनाकर तो फिर कुछ जगह विभिन्न तरह की सफेद मिट्टी की आकृति आँक कर उस पर मिट्टी के पालसिए में होली की राख की पिण्डोलियाँ बनाकर पूजन करती है। उस पर गुलाल,अबीर,चंदन और टेसू (पलाश) के फूलों के रंग के साथ साथ महावर,सिंदूर और चूड़ी अर्पण करती हैं। फिर चंदन,अक्षत,धूपबत्ती आदि के साथ विधि-विधान से पूजन करके भोग लगाया जाता है,जबकि विवाहित महिलाएं चैत्र शुक्ल तृतीया को गणगौर-ईसर व भाइया की काष्ठ प्रतिमाओं को आकर्षक वस्त्र व आभूषण पहना कर पूजन तथा व्रत कर अपने लिए अखंड सौभाग्य, पीहर और ससुराल की समृद्धि की कामना करती हैं।
इसमें आजकल पारम्परिक गीतों के साथ फिल्मी व राजस्थानी लोकगीतों की तर्ज पर गीतों को ताल व लय के साथ साज व संगीत के हिसाब से गाने की परम्परा बढ़ रही है।
बहुत जगह गणगौर की सवारी निकलती है और उसमें बालिकाओं,महिलाओं के साथ पुरुषों की अच्छी खासी संख्या में भागीदारी रहती है। अनेक गणगौर मण्डलियाँ बनी हुई हैं। ये मण्डलियाँ अपने-अपने स्थान पर आदमकद मूर्तियों को पूरे आभूषणों से सुसज्जित कर विधि-विधान से पूजा करती हैं और शाम ढलने के समय माता गंगा के तट पर गंगाजल पिलाने ले जाते हैं। तृतीया के बाद इन मण्डलियों में प्रतिस्पर्धा भी होती है। संगीत के जानकारों के एक समूह को निर्णायकों की भूमिका में सर्वश्रेष्ठ-श्रेष्ठ इत्यादि घोषित करने को अधिकृत कर उनके समक्ष सभी बारी-बारी से अपनी-अपनी प्रस्तुति देते हैं। इस कार्यक्रम में सभी मण्डलियों के सदस्यों के अलावा बाहर प्रदेशों से पधारे लोगों के साथ स्थानीय जनता भी बड़ी तादाद में उपस्थित रहती है।
चूँकि,लोक परम्पराओं को जीवित रखने की जिम्मेदारी हम सभी की है,और इसी उद्देश्य के मद्देनजर हमारे माईतों ने यह त्यौहार परम्परा से मनाए जाने की शुरुआत हर उस जगह कर दी,जहाँ जहाँ वे रोजगार हेतु बसे। यही कारण है कि, राजस्थान के हर छोटे बड़े शहर के अलावा पूरे भारत में भी जहाँ-जहाँ राजस्थानी बसे हुए हैं,वहाँ सब जगह यह त्यौहार आज तक इसी परम्परा से मनाया जाता है।