डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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गणतंत्र दिवस:लोकतंत्र की नयी सुबह (२६ जनवरी २०२५ विशेष)….
सूरज पिछले सात दिनों से कर रहा है काम,
सरकारी दफ्तर के मानिंद।
खोलता है कभी-कभार रोशनी की फाइलें,
देखो न किरणें नदारद है।
देशभक्ति गीत अब कौवों के गले में हैं,
चिड़िया सत्ता के पिंजरे में कैद है।
सोने का अंडा देती है, पर चहचहाना भूल चुकी है।
उसकी आवाज़ को रजत पात्रों में परोसकर,
करता है कोई ‘तंत्र’ की जय-जयकार।
गणतंत्र सिकुड़ता जा रहा है,
झुग्गियों की टूटी छतों से खिसककर
जा बैठा है सत्ता की आलीशान इमारतों के कंगूरों पर।
वहाँ का सूरज कभी नहीं डूबता,
कभी नहीं मिलती ‘गण’ को इसकी रोशनी।
सरकारी घोषणाएँ,
जो सालों से थोक में बिकती आई हैं
अब इतनी खोखली हो चुकी हैं
कि उनके बजने से बहरे होने लगे हैं कान।
हर नारा गूँजता है निरुद्देश्य,
जैसे खोखली आत्मा में गूंजती है आवाज।
गणतंत्र दिवस का समारोह-
एक ऐसा मेला है, जहाँ ‘गण’ तो है,
लेकिन ‘तंत्र’ की रेखा से कहीं कटा हुआ।
झंडा फहरता है,
हवा में आज़ादी के दावे तैरते हैं
पर ज़मीन पर सिर्फ गिरती हैं परछाइयाँ।
इस बार का सूरज भी अलसाया हुआ है,
मानो पूछ रहा हो-
“गण कहाँ है ? और तंत्र कब लौटेगा ?”