हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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काँटों की चुभन में है वह दर्द कहाँ,
जो अपनों के उलाहने की टीस में है
दूध के उबाल में है वह उफान कहाँ,
जो महबूब की बेवफाई की रीस में है।
जिन्हें आदत सी हो गई हो शोलों से खेलने की,
उन्हें चुभन का होता है अब एहसास ही कहाँ ?
वे पी जाते हैं भालों के से तीखे शब्दों को भी,
दूध की धार की तरह, रही शेष आश ही कहाँ ?
ता-उम्र के सिलसिले में खाए जिसने,
अपनों से ही लाखों-लाख धोखे हों
जिसने अपने भीतर उभरते तूफ़ानी,
हर खयालो-ख़वाब जबरन ही रोके हों।
उसकी चुभन की करेगा कोई भला,
कागद-कलम से यहाँ शुमार ही क्या ?
जो दे न गया हो दर्द ही कोई दिल में,
वह प्यार भी है भला प्यार ही क्या…?