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जन-संवेदना का प्रतिनिधित्व करती एकमात्र भाषा हिंदी

शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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हिन्दी की बिन्दी…

हमारे राष्ट्र व जन-संवेदना का प्रतिनिधित्व करने वाली एकमात्र भाषा है हिंदी। देश के २९ राज्यों व ८ केंद्रशासित जनसमुदाय की भाषा और बोली है। भाषा सदैव अपने समकालीन जन-जीवन में उत्पन्न होने वाले विचारों को प्रेषित करती है, और नए-नए रूपों को अपनाते हुए विकसित होती है। भाषा अपने में सामयिक, राजनीतिक, आर्थिक, दार्शनिक व धार्मिक में छिपे या घटित होते संदर्भों को पथ देती है। सातवीं शताब्दी के अंत तक अपभ्रंश से उत्पन्न हिंदी बिहार से लेकर राजस्थान तक एक स्वतंत्र बोल-चाल की भाषा रही है। वैदिक काल में संस्कृत साहित्य की, प्राकृत लोक-भाषा और प्राकृत से ही कई शताब्दियों उपरान्त अपभ्रंश का जन्म काव्य की भाषा के लिए हुआ है। अब तक हिंदी बोलचाल की भाषा के रूप में प्रचलित तो थी ही, साथ में एक ओर संस्कृत के व्याकरण से हिंदी व्याकरण में परिवर्तित एवं संस्कृत के स्वभाव को अपना बनाने के कारण अपभ्रंश से भिन्न रूप ले विकसित हुई है। दूसरी ओर, संस्कृत के शब्द-भंडार को तत्सम रूप व उनमें ध्वनि-परिवर्तन कर एवं बोलियों के शब्दों से प्रादेशिक स्तर पर हिंदी आगे बढ़ती रही, जिस कारण हिंदी को संस्कृत की बेटी माना गया है। यह प्रक्रिया हिंदी का लोचशील स्वभाव बन चुका है। आज भी विदेशी शब्दों के अर्थ, ध्वनि और रूप को ज्यों का त्यों अपनाने में हिंदी का यह स्वभाव विस्तृत आकार लिए हुए है। हिंदी भाषा अपनी मौलिकता को युगान्तरों से सहेजे हुए है। हिंदी भाषा का वाक्य-विन्यास संस्कृत भाषा शैली की भान्ति संगठित न होकर प्रत्येक शब्द को पृथक स्थान, अर्थ व रूप का आग्रह करता है। लेखन वर्ण संस्कृत के समान होते हुए भी रूप-संरचना का अलग स्थाई स्थान है।
हिंदी साहित्यकारों ने सातवीं सदी के साहित्य को अपभ्रंश के प्रभाव युक्त मानते हुए ‘पुरानी हिंदी’ के नाम से अभिहित किया है। कतिपय कुछ ग्रंथों को लेकर संशय की स्थिति उत्पन्न भी हुई, यथा प्राचीन प्रतियों के आधार पर पृथ्वीराज रासो व बीसलदेव रासो को हिंदी भाषा का माना जाए या अपभ्रंश भाषा का माना जाए। हिंदी शब्द के अभिप्राय को लेकर भी आचार्यों व आधुनिक साहित्यकारों के बीच लम्बे समय तक वाद-विवाद बना रहा। किसी ने उत्तर में भारतेंदु बोली जाने वाली भाषा कहा, तो किसी ने ‘खड़ी बोली’ को ही हिंदी बताया, जबकि ब्रज, अवधी, मैथिली व राजस्थानी बोली-भाषाओं में वृहद साहित्य उपलब्ध है। छठी शताब्दी के बादशाह नौशेरवां के एक दरबारी कवि ने ‘पंचतंत्र’ का अनुवाद करते हुए संस्कृत को ही ‘जबाने हिंदीं’ कह दिया था। कवि अमीर खुसरो हिंदी भाषा की शब्द ग्रहणशीलता को शायद पहले पहचान चुके थे। उन्होंने लिखा, “मैं भूल में था। अच्छी तरह सोचने पर हिंदी भाषा फ़ारसी से कम ज्ञात नहीं हुई।” अरबी भाषा के समान हिंदी बिना मिलावट के दूसरी भाषा के शब्दों को मिलने देती है। बाबर ने हिंदी शब्द के लिए ‘हिंदुस्तानी’, जायसी ने ‘हिंदवी’ और महमूद गजनवी के दरबार में हिंदी भाषा के ही २०० कवि रहते थे। आधुनिक युग में प्रथम हिंदी कहानी रचयिता इंशा अल्ला खां (इस संबंध में विद्वानों में मतभेद) ने खड़ी बोली को ‘हिंदवी’ और दखिनी के पुराने कवियों ने भी ‘हिंदवी’ शब्द का प्रयोग किया है। ब्रज, अवधी, मैथिली के विद्यापति और तुलसीदास जैसे कवियों ने ‘देशी भाषा’ कहा और हिंदी साहित्य में आधुनिक युग के प्रवर्तक बनारसवासी भारतेन्दु ने हिंदी को ‘परदेशी भाषा’ माना है। अधिक ऊहा-पोह न कर प्रादेशिक क्षेत्रफल की दृष्टि से संकुचित अर्थ में खड़ी बोली को ‘हिंदी’ एवं विस्तृत अर्थ में राजस्थान से बिहार, हिमालय से मध्यप्रदेश की सभी विभाषाओं व उपभाषाओं को हिंदी प्रदेश माना गया है। आज के समय में क्षेत्रीय भाषाओं व स्थानीय भाषाओं का साहित्य हर विधा में भी उपलब्ध है। भोजपुरी, पंजाबी, तेलुगु व बंगाली आदि फ़िल्में इसका महत्वपूर्ण उदाहरण है।
सोशल मीडिया के दौर में फेसबुक, इंस्टाग्राम, ब्लॉग, ई-पत्रिका आदि संसाधनों के कारण साहित्यकारों व रचनाओं का क्षेत्रफल पुस्तकालय या हिंदी स्पर्धाओं तक सीमित नहीं है। यह हिंदीभाषी प्रवासी भारतीयों के कारण विश्व स्तर पर प्रशंसा की पात्र बन चुकी है। अनुवाद द्वारा देश-प्रदेश व विदेशी रचनाओं को सुलभता से सोशल मीडिया लाभान्वित कर रहा है। इससे प्रसिद्धी, धन-लाभ व प्रतिभाशाली साहित्यकारों के लिए नए आयाम सामने आए हैं। आज जो साहित्य रचा जा रहा है, उसमें यथार्थ के हर क्षण, हर विषय को साहित्यकार भाव-संवेदना से अभिव्यक्ति दे रहा है। प्राचीन आचार्यों द्वारा निर्मित साहित्यिक सिद्धांत का अनुपालन कतिपय कम हो रहा हो, लेकिन नई-नई विधाओं का अन्वेषण समकालीन जन-व्यस्तताओं के अनुरूप अवश्य हो रहा है। निज भाषा उन्नति नहीं, न ही सहज और स्वाभाविक सौंदर्य में भावात्मक अनभूतियों का प्रकटीकरण बोल-चाल की लोक भाषा के गीतों, लोकोक्तियों और मुहावरों के बिना संभव है। भाषा वही जीवित रहती है, जो लोकमुख समय के साथ चलते हुए शब्दों से नवीन बनी रहती है।

भारत में हिंदी भाषा का जन्मदिन १४ सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ व राजभाषा सप्ताह’ और १० जनवरी को विश्व में भारत की भाषा हिंदी को ‘विश्व हिंदी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। कामना करते हैं कि, हिंदी भाषा का परचम सूर्य के तेज की भाँति युगों तक मान-सम्मान से अपना प्रकाश विश्व में फैलाता रहे।

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