दिल्ली
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राजा राममोहन राय जन्म जयन्ती (२२ मई) विशेष…
यह वह समय था, जब हिन्दुस्तान एक तरफ विदेशी दासता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। दूसरी तरफ रूढ़िवाद, धार्मिक संकीर्णता, सामाजिक कुरीतियों और दमघोंटू प्रथाओं के बोझ तले दबा हुआ था। तभी एक मसीहा, समाज-सुधारक एवं क्रांतिकारी महामानव अवतरित हुआ, जिसने तमाम बुराइयों को चुनौती दी और आखिरी साँस तक बदलाव के लिए क्रांतिकारी योद्धा की तरह लड़ा। ये मसीहा था राजा राममोहन राय, जिन्हें देश एवं दुनिया आज भारत में ‘सामाजिक सुधारों के अग्रदूत’ के तौर पर याद करती है। अपने दौर में वे ‘भारतीय पुनर्जागरण के पितामह’ बनकर सच्चे जीवन की लौ बने और इसका आह्वान था नए भारत का निर्माण। वे तमस से ज्योति की ओर एक बहुआयामी सुधारवादी यात्रा का उजाला थे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री राय द्वारा स्थापित ‘ब्रह्म समाज’ सबसे शुरूआती सुधार आंदोलन था। एक सुधारवादी विचारक के रूप में राजा राय आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवीय गरिमा तथा सामाजिक समानता के सिद्धांतों में विश्वास करते थे। राजा राय के प्रयासों से ही भारत में आधुनिक धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलनों की नींव पड़ी। उन्नीसवीं सदी के भाल पर अपने कर्तृत्व की जो अमिट रेखाएं उन्होंने खींची, वे इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। वे साहित्य सृष्टा के साथ धर्म-क्रांति एवं समाज-क्रांति के सूत्रधार और विराट व्यक्तित्व थे।
राजा राम मोहन राय का जन्म पश्चिम बंगाल स्थित हुगली जिले के राधानगर गांव में २२ मई १७७२ को हुआ। पूरा परिवार कट्टर हिन्दू परंपराओं का हिमायती था, लेकिन राममोहन राय बिना तर्क किसी भी बात को स्वीकार नहीं करते थे। जब केवल १५ साल के थे, तो मूर्ति पूजा को लेकर सवाल खड़े कर दिए, साथ ही अन्य प्रथाओं की भी आलोचना आरंभ कर दी। हिन्दू परंपराओं का विरोध करने से पिता-पुत्र में गहरा मतभेद हो गया। पढ़ाई पूरी करने के बाद राम मोहन राय कई अंग्रेजों के संपर्क में आए। उनकी सभ्यता, सोच और तौर-तरीकों को करीब से महसूस किया। उन्होंने समझ लिया, कि पश्चिमी सभ्यता विकास की प्रक्रिया में काफी आगे निकल गयी है, जबकि हिन्दुस्तान सदियों पीछे जी रहा है।
राम मोहन राय ने हिन्दू ग्रंथों के साथ इस्लाम, ईसाई धर्मों एवं ग्रंथों का भी गहराई से अध्ययन किया। उन्होंने महसूस किया कि भारतीय जनमानस अपने ग्रंथों की मूल भावना से काफी अनजान है। ऐसा इसलिए था, क्योंकि धर्मग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे थे और लोगों की पहुंच से दूर थे। इसलिए उन्होंने धर्मग्रंथों का हिन्दी, बांग्ला, अरबी और फारसी भाषाओं में अनुवाद किया। उन्होंने अपने अखबारों ‘संवाद कौमुदी’ और ‘मिरात-उल-अखबार’ में लेखों के जरिए आम जनमानस को जागरूक किया। राजा राममोहन राय को आधुनिक भारत का जनक माना जाता है। वे महान समाज सुधारक, विचारक एवं क्रांतिपुरुष थे, जिन्होंने १९वीं सदी में भारत में सामाजिक, धार्मिक और शैक्षिक सुधारों के लिए अनूठे एवं विलक्षण उपक्रम किए। उन्होंने व्यक्ति के साथ समाज-क्रांति करते हुए सती प्रथा, बाल विवाह और जाति व्यवस्था जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई और महिलाओं के अधिकारों के लिए भी संघर्ष किया।
राम मोहन राय का मानना था, कि धार्मिक रूढ़िवादिताएं समाज की स्थिति को सुधारने की बजाय क्षति का कारण, परेशानी का स्रोत, सामाजिक जीवन के लिए हानिकारक और लोगों को भ्रमित करने वाली बन गई हैं। यह भी मानना था, कि बलिदान और अनुष्ठान लोगों के पापों की भरपाई नहीं कर सकते; यह आत्म-शुद्धि और पश्चाताप के माध्यम से किया जा सकता है। उन्होंने धार्मिक सुधार से सामाजिक सुधार और राजनीतिक आधुनिकीकरण दोनों का सूत्रपात किया। ये अपने समय से बहुत आगे चलने एवं सोचने वाले दूरदर्शी व्यक्तित्व थे। स्वतंत्रता, समानता और न्याय के सिद्धांतों के अंतर्राष्ट्रीय चरित्र के बारे में उनकी समझ ने आधुनिक युग के महत्व को बखूबी समझा। ये सिद्धांत वर्तमान ‘न्यू इंडिया’ के विचार को प्रेरित करते हैं। श्री राय ने वर्ष १८०३ में अपनी पहली पुस्तक ‘तुहफ़त-उल-मुवाहिदीन’ या ‘गिफ्ट टू मोनोथिस्ट’ प्रकाशित की, जिसमें एकेश्वरवाद यानी एकल ईश्वर की अवधारणा के पक्ष में तर्क दिया है। उन्होंने अपने इस तर्क में प्राचीन हिंदू ग्रंथों के एकेश्वरवाद का समर्थन करने के लिए वेदों और पाँच उपनिषदों का बंगाली में अनुवाद किया।
उन्होंने मूर्तिपूजा, जातिगत रूढ़िवादिता, निरर्थक अनुष्ठानों और अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ अभियान चलाने के लिए कलकत्ता में आत्मीय सभा की स्थापना की। जब बड़े भाई का देहांत हो गया तो परंपरा के मुताबिक गांव वालों ने उनकी भाभी को सती हो जाने के लिए मजबूर किया। उन्हें मृतक के साथ उसी चिता में जिंदा जला दिया गया। इस घटना से राम मोहन राय बहुत दुखी हुए। उन्होंने १८१८ में सती-विरोधी संघर्ष शुरू किया और पवित्र ग्रंथों का हवाला देते हुए यह साबित करने का प्रयास किया, कि सभी धर्म मानवता, तर्क और करुणा की बात करते है; कोई भी धर्म विधवाओं को जिंदा जलाने का समर्थन नहीं करता है। उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप १८२९ में सरकारी विनियमन द्वारा सती प्रथा को अपराध घोषित कर दिया गया। श्री राय सती प्रथा के अमानवीय व्यवहार के खिलाफ एक धार्मिक योद्धा थे। जब उनके पिता का देहांत हुआ, तब उन्होंने देखा था कि समाज विधवाओं के साथ कैसा व्यवहार करता है। विधवाओें का सिर मुंडवा दिया जाता था। उन्हें रंगहीन सफेद कपड़ा पहनना पड़ता था, परिवार या समाज के सार्वजनिक आयोजनों से दूर रखा जाता था। इन बातों ने राममोहन राय को अंदर तक व्यथित किया। तब श्री राय ने ठान लिया कि वे भारतीय समाज से इन बुराइयों को दूर कर के रहेंगे। इसलिए उन्होंने सती प्रथा उन्मूलन और विधवा पुनर्विवाह कानून बनाने की मुहिम छेड़ दी। इसमें उन्हें तात्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक से खूब सहायता मिली। उन्होंने जाति व्यवस्था, छुआ-छूत, अंधविश्वास और मादक द्रव्यों के इस्तेमाल के खिलाफ भी अभियान चलाया। उनके विचारों और गतिविधियों का उद्देश्य सामाजिक सुधार के माध्यम से जनता का राजनीतिक उत्थान करना था।
तत्कालीन मुगल बादशाह ने उन्हें आर्थिक सहायता संबंधी किसी काम के लिए ब्रिटेन भेजा। इसी मुगल बादशाह ने उनको ‘राजा’ की उपाधि भी दी। राजा राम मोहन राय का आधुनिक शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण और उनके प्रयास भारतीय शिक्षा प्रणाली में एक क्रांति लेकर आए। उनके द्वारा किए गए सुधारों ने भारतीय समाज को अंग्रेजी और आधुनिक विज्ञान की शिक्षा से जोड़ा और भारत में शिक्षा के क्षेत्र में एक नए युग की शुरुआत की। राजा राममोहन राय ने भारतीय समाज में आधुनिकता, तर्कशीलता और समानता की नींव रखी। उनके कार्यों ने भारतीय समाज को प्राचीन रूढ़ियों से बाहर निकालकर आधुनिक युग की ओर अग्रसर किया। उनके जीवन का हर पहलू समाज सुधार, धार्मिक सहिष्णुता और समानता के लिए प्रेरणा का स्रोत है।