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दोष राहुल का नहीं, पट्टी पढ़ाने वालों का

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
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राहुल गांधी की अच्छी-खासी भारत-यात्रा चल रही है, लेकिन पता नहीं क्या बात है कि वक्त-बेवक्त उसमें वे पलीता लगवा लेते हैं। पहले उन्होंने जातिय-जनगणना के सोए मुर्दे को उठा दिया, जिसे उनकी माता सोनिया गांधी ने खुद दफना दिया था और अब उन्होंने महाराष्ट्र में जाकर वीर सावरकर के खिलाफ बयान दे दिया है। क्या उन्हें पता नहीं है कि, विनायक दामोदर महाराष्ट्रियन थे और महाराष्ट्र के लोग उन्हें स्वांतत्र्य संग्राम का महानायक मानते हैं ? स्वयं इंदिरा गांधी ने उन्हें महान स्वतंत्रता-सेनानी कहा है। राहुल ने ब्रिटिश सरकार को लिखे सावरकर के एक पत्र को उद्धृत करते हुए कहा है कि, सावरकर ने अपने-आपको अण्डमान की जेल से छुड़वाने के लिए ब्रिटिश सरकार से माफी मांगी और रिहा होने के बाद उसके साथ पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया। राहुल का कहना है कि सावरकर ने ऐसा करके गांधी, पटेल और नेहरु के साथ विश्वासघात किया और वे अंग्रेजों का साथ देते रहे। ऐसा कहने में मैं राहुल का कोई दोष नहीं मानता हूँ। यह दोष उनका है, जो लोग राहुल को पट्टी पढ़ाते हैं। बेचारे राहुल को स्वाधीनता संग्राम के इतिहास के बारे में क्या पता है ? अंग्रेज के ज़माने के गुप्त दस्तावेजों का स्वाध्याय और अनुसंधान करना तो राहुल क्या, किसी पढ़े-लिखे नेता से भी उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन सावरकर पर इधर छपे ५-६ प्रामाणिक ग्रंथों को भी राहुल ने सरसरी नजर से देख लिया होता तो पता चल जाता कि सावरकर और उनके भाई ने आजन्म जेल से छूटने के लिए ब्रिटिश सरकार को एक बार नहीं, कई बार चिट्ठियाँ लिखी थीं और वे हर कीमत पर जेल से छूटकर अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का षड़यंत्र रच रहे थे। यह बात मैं नहीं कह रहा हूँ। लगभग ४० साल पहले नेशनल आर्काइव्ज़ के गोपनीय दस्तावेजों को खंगालने पर पता चला कि उनके माफीनामे पर प्रतिक्रिया देते हुए गवर्नर जनरल के विशेष अधिकारी रेजिनाल्ड क्रेडोक ने लिखा था कि सावरकर झूठी माफी मांग रहा है और वह जेल से छूटकर यूरोप के ब्रिटिश-विरोधी आतंकवादियों से हाथ मिलाएगा और सशस्त्र क्रांति के द्वारा ब्रिटिश सरकार को उलटाने की कोशिश करेगा। सावरकर को जेल से छोड़ने के बाद भी बरसों-बरस नजरबंद करके क्यों रखा गया ? यदि सावरकर अंग्रेजभक्त थे तो महात्मा गांधी खुद उनसे मिलने लंदन के ‘इंडिया हाउस’ में क्यों गए थे ? स्वयं गांधी जी ब्रिटिश-विरोधी तो १९१६ में बने। १८९९ में वे अफ्रीका के बोइर-युद्ध में अंग्रेजों का साथ दे रहे थे। उन्हें ‘केसरे-हिंद’ की उपाधि भी अंग्रेज सरकार ने दी थी। सावरकर उनके बहुत पहले से ही ब्रिटिश सरकार को उलटाने की कोशिश कर रहे थे ? क्या वजह है कि मदाम भीकायजी कामा, सरदार भगतसिंह और सुभाषचंद्र बोस सावरकर के भक्त थे ? यह ठीक है कि आप सावरकर और सुभाष बोस के सशस्त्र क्रांति के हिंसक तरीकों से असहमत हों, लेकिन सावरकर को लांछित करने और अंग्रेजों को लिखे उनके पत्रों की मनमानी व्याख्या करने की तुक क्या है ? यदि राहुल की सोच यह है कि इससे वे ज्यादा मत कबाड़ सकेंगे तो उन्हें पता होना चाहिए कि महाराष्ट्र में आजकल उनका साथ देने वाली उद्धव ठाकरे की शिवसेना को उन्होंने कितनी अधिक तकलीफ पहुंचाई है। सावरकर को नीचा दिखाकर भाजपा को हानि पहुंचाने की रणनीति कांग्रेस के लिए आत्मघाती सिद्ध हो सकती है।

परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

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