शंकरलाल जांगिड़ ‘शंकर दादाजी’
रावतसर(राजस्थान)
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अन्तर्मन का घट रीता है कैसे मैं भर पाऊँ,
ज्ञान पिपासा बढ़ती जाए कैसे प्यास बुझाऊँ।
दर-दर फिरा भटकता लेकिन सत्गुरु कहीं न पाए,
खोह गुफाएँ जंगल ढूँढा कहीं नजर नहीं आए।
मैं अज्ञानी बिना गुरू के ज्ञान कहांँ से पाऊँ,
ज्ञान पिपासा बढ़ती…॥
तपती रेत सुलगता सहरा तन घायल-मन पागल,
मृगतृष्णा नैनों से झलके मन जलता दावानल।
कंठ प्यास से सूख रहे अब नीर कहाँ से लाऊँ,
ज्ञान पिपासा बढ़ती…॥
जल बिन मीन तड़पती जैसे तड़प रहा मन मेरा,
कहीं नीड़ कोई न ठिकाना कर लूँ जहांँ बसेरा।
दरिया में रह कर भी प्यासा ही कैसे मर जाऊँ,
ज्ञान पिपासा बढ़ती…॥
धन,बल की है प्यास सभी में मेरी प्यास निराली,
मुझे ज्ञान की प्यास शारदे मात है देने वाली।
थाम हाथ जो भी लिखवा लें मैं बस लिखता जाऊँ।
ज्ञान पिपासा बढ़ती…॥
आन मिलो गुरुदेव शरण में मुझको आप जगा दो,
चरणों में है विनय ज्ञान की बारिश अब करवा दो।
धन्य भाग हो मेरा उस बारिश में खूब नहाऊँ,
ज्ञान पिपासा बढ़ती जाए कैसे प्यास बुझाऊँ…॥
परिचय–शंकरलाल जांगिड़ का लेखन क्षेत्र में उपनाम-शंकर दादाजी है। आपकी जन्मतिथि-२६ फरवरी १९४३ एवं जन्म स्थान-फतेहपुर शेखावटी (सीकर,राजस्थान) है। वर्तमान में रावतसर (जिला हनुमानगढ़)में बसेरा है,जो स्थाई पता है। आपकी शिक्षा सिद्धांत सरोज,सिद्धांत रत्न,संस्कृत प्रवेशिका(जिसमें १० वीं का पाठ्यक्रम था)है। शंकर दादाजी की २ किताबों में १०-१५ रचनाएँ छपी हैं। इनका कार्यक्षेत्र कलकत्ता में नौकरी थी,अब सेवानिवृत्त हैं। श्री जांगिड़ की लेखन विधा कविता, गीत, ग़ज़ल,छंद,दोहे आदि है। आपकी लेखनी का उद्देश्य-लेखन का शौक है