दिल्ली
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नरेन्द्र मोदी को सत्ता से उखाड़ फेंकने का ऐलान करने एवं आरएसएस की संविधान विरोधी और विभाजनकारी विचारधारा के खिलाफ बिगुल बजाने के लिए बना बेमेल का इंडिया गठबंधन बनने के सवा साल के अंदर ही बिखर एवं खत्म हो गया लगता है। जब से यह बना, तभी से इसमें गहरे मतभेद नजर आते रहे, मुुद्दों एवं नीतियों में गहरा बिखराव देखने को मिलता रहा। जितने दल उतनी बातें। अब न मुद्दा एक रहा, न मंच। कभी ईवीएम पर अलग-अलग राय तो कभी सम्भल पर, कभी अडानी पर घमासान तो कभी सीटों के तालमेल को लेकर मतभेद। कभी गठबंधन के नेतृत्व को लेकर विवाद तो कभी विचारों को लेकर विरोधाभास। इन गहरी खाइयों एवं गड्ढ़ों वाले इंडिया गठबंधन ने हरियाणा एवं महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में ही उलटी गिनती करना शुरु कर दिया था, अब दिल्ली विधानसभा चुनाव में यह पूरी तरह से बिखर गया है। अब तो दबी जुबान से बोले जाने वाले तीखे बोल सार्वजनिक हो चले हैं। गठबंधन से जुड़े नेताओं ने स्पष्ट कर दिया है गठबंधन सिर्फ लोकसभा चुनाव के लिए था, चुनाव खत्म हो चुका है तो गठबंधन भी खत्म हो गया।
इन दिनों बिहार और दिल्ली में सियासी पारा कड़ाके की ठंड में भी गर्म है। वजह है कि दोनों ही राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। दिल्ली में ५ फरवरी को मतदान है एवं साल के अंत तक बिहार में कौन राज करेगा, इसकी तस्वीर भी साफ हो जाएगी। इससे पहले दिल्ली एवं बिहार में राजनीतिक सरगर्मियों एवं तीखी बयानबाजी के बाद गठबंधन टूट के कगार पर पहुंच गया। दिल्ली चुनाव में ‘आप’ और कांग्रेस के बीच की दूरी और सहयोगी दलों के रुख के बाद गठबंधन की टूट तय हो गई है एवं इसकी पुष्टि गठबंधन के नेताओं से बयानों से हो रही है। वैसे तो इंडिया गठबंधन की नाव कांग्रेस के हरियाणा और महाराष्ट्र में हारने के बाद ही हिचकोले लेने लगी थी, लेकिन दिल्ली चुनाव ने तो उसे लगभग डुबा ही दिया है। कांग्रेस के हाथ का साथ छोड़ इंडिया गठबंधन के सभी दल केजरीवाल की झाड़ू के पीछे खड़े हो गए हैं। ममता की तृणमूल हो या अखिलेश यादव की सपा, उद्धव की शिवसेना हो या इंडिया के बाकी दल, सभी कांग्रेस से दूरी बनाते हुए अरविन्द केजरीवाल के साथ खड़े हो गए हैं। कहा जाता है कि राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता, इसलिए राजनीति के बनते-बिगड़ते रिश्तों का यह इंडिया गठबंधन धारावाहिक नये-नये अंक दिखा रहा है। लगातार चुनावी नाकामियों से पैदा हुई बेचैनी गठजोड़ पर भारी पडती रही है। इस तरह एक-दूसरे के खिलाफ असंतोष, दोषारोपण और बयानबाजी विपक्ष एकता के लिए घातक सिद्ध हुई।
गठबंधन के घटक दलों ने लोकसभा चुनाव में भले ही अपने लक्षित उद्देश्यों को पाने में तनिक सफलता हासिल की थी, उसने जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र और झारखंड में भी विधानसभा चुनाव मिलकर लड़ा, लेकिन हरियाणा में कांग्रेस ने ‘आप’ से मिलकर चुनाव लड़ने से मना कर दिया था। अब यही काम ‘आप’ ने दिल्ली में किया, क्योंकि वह राजधानी को अपना गढ़ मानती है। कांग्रेस भी दिल्ली की अपनी राजनीतिक जमीन छोड़ने को तैयार नहीं, क्योंकि उसने लंबे समय तक यहाँ शासन किया है। कांग्रेस यह भी जानती है कि दिल्ली में ‘आप’ के प्रति किसी तरह की नरमी बरतने से वह अपनी बची-खुची राजनीतिक जमीन वैसे ही गंवा देगी, जैसे अन्य राज्यों में गंवा चुकी है। इसी बीच यह भी बड़ा तथ्य है कि दिल्ली में ‘आप’ एवं कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ती तो यह भाजपा के लिए बड़ी चुनौती थी, पर अब भाजपा की जीत की संभावनाएं बढ़ गईं हैं। एक बड़ा तथ्य यह भी है कि इंडिया गठबंधन के अधिकांश घटक कांग्रेस के मत बैंक पर कब्जा करके उभरे हैं। यदि कांग्रेस अब केवल मोदी को पछाड़ने के लिए
गठबंधन धर्म निभाती है तो जिन चंद राज्यों में उसकी प्रभावी उपस्थिति है, वहाँ भी वह कमजोर हो जाएगी। दूसरी तरफ गठबंधन के घटक दल भी इससे परिचित हैं कि यदि उन्होंने अपने गढ़ों में कांग्रेस के प्रति उदारता एवं सहानुभूमि बरती तो वह उनके उस मत बैंक को अपने पाले में कर सकती है, जिसे उन्होंने कभी उससे ही छीना था। वास्तव में इंडिया गठबंधन इन्हीं विरोधाभासों, राजनीतिक जोड़-तोड, मजबूरियों एवं विवशताओं के चलते बिखर गया है।
महाराष्ट्र चुनाव के दौरान भी इंडिया गठबंधन के घटक दलों में तालमेल की कमी देखने को मिली थी। बंगाल में पहले ही कांग्रेस और टीएमसी एक-दूसरे के विरुद्ध हैं। इसी तरह, दिल्ली में ‘आप’ और कांग्रेस में गठजोड़ नहीं हो पाया। यह कैसा गठबंधन है, जिसमें इतने अंतर्विरोध एवं असहमतियाँ हों। ऐसे में इन दलों के समर्थकों की उलझन की सहज कल्पना की जा सकती है और इससे गठबंधन की मूल विचारधारा पर प्रश्न खड़े होने भी स्वाभाविक थे। गठबंधन की सफलता के लिए नीति एवं नियत में एकजुटता जरूरी है। गठबंधन तभी सफलता से चलता है, जब सारे पक्ष थोड़ा-थोड़ा त्याग करें और किसी बड़े लक्ष्य को सामने रखें। क्षेत्रीय दलों की बहुलता और अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग क्षेत्रीय दलों की प्रधानता के चलते भी इस तरह के गठबंधन को लंबे समय तक चला पाना मुश्किल था। चुनावी हार की ऐसी स्थितियों में इंडिया गठबंधन का अंतिम साँसें गिनना स्वाभाविक ही रहा है।
भारतीय राजनीति के अतीत में न जाने कितनी बार विपक्षी एकता के प्रयास हुए, लेकिन वे एक सीमा से आगे नहीं बढ़ सके। गठबंधन की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि उनके पास कोई साझा उद्देश्य हो और नीतिगत स्पष्टता भी हो। स्पष्टता के इसी अभाव के चलते इंडिया गठबंधन अपने लिए कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम नहीं तैयार कर सका। एक अनिवार्यता यह भी है कि नेतृत्व करने वाले दल का प्रभुत्व हो, गठबंधन नेता की प्रभावी छवि हो, उसकी स्पष्ट नीति एवं नियत हो, सिद्धान्त एवं विचार भी मजबूत हो, लेकिन इंडिया गठबंधन में ऐसा नहीं रहा। भले ही लोकसभा चुनाव से पहले बहुत जोर-शोर से गठबंधन की बैठकें हुई हो, पर अब गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी को न गठबंधन की चिंता है और न बैठक की जरूरत महसूस हो रही है।
बहरहाल, आम लोगों के नजरिए से देखें, तो कई लोग कुछ ठगा हुआ महसूस कर रहे होंगे और इसका असर यह होगा कि भविष्य में बनने वाले किसी भी ऐसे विपक्षी गठबंधन को जनता का विश्वास जीतने एवं गठबंधन को सफल बनाने में मुश्किल आएगी।
इंडिया गठबंधन ने केन्द्र में सरकार बनाने की बड़ी एकजुटता के साथ बड़े-बड़े वादे किए थे, उन वादों का क्या हुआ ? कमजोर बुनियाद पर खड़े इस गठबंधन का यही हश्र होना था। हालांकि, यह राजनीति है और यहाँ दलों की अपनी जरूरतों के हिसाब से गठबंधन बनते-बिगड़ते रहते हैं। आज की राजनीति में यह असामान्य बात नहीं है, क्योंकि सबको स्वाभाविक ही अपने-अपने दल की चिंता है, गठबंधन की नहीं।