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भविष्य की सांस्कृतिक आहट है ‘बुलडोजर’ ?

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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संवेदनशील कवि बसंत सकरगाए ने अपनी ताजा कविता में एक बुलडोजर-सा सवाल उठाया है-
‘अब, जबकि एक यंत्र
बाक़ायदा शामिल हो चुका है
तथाकथित धर्मयुद्ध के षड्यंत्र में
जैसे हमारा राष्ट्रीय पशु बाघ है
राष्ट्रीय पक्षी मोर
हॉकी राष्ट्रीय खेल हमारा
तो बुलडोज़र क्यों नहीं हो सकता
राष्ट्रीय यंत्र हमारा ?’
दरअसल १०० साल पहले बुलडोजर जैसी भीमकाय मशीन ईजाद करने वाले २ अमेरिकी किसानों जेम्स कमिंग्स और अर्ल मेक्लियोड ने शायद ही सोचा होगा कि मूलत: खेती किसानी के काम में सुविधा के लिए बनाया गया यह यंत्र कभी भारतीय राजनीति में ‘सबक सिखाने’ का प्रतीक बनेगा। अब तो तुरंत बदले की भावना से भरे इस ‘बुलडोजर न्याय’ की मांग और स्वीकृति बढ़ती ही जा रही है। मिट्टी खोदने का यह राक्षसी हाथ अब संदेहियों और आरोपियों के आशियानों को जमींदोज करने का माध्यम बन गया है। भले ही वह अतिक्रमण की वजह से ही क्यों न हो।
अमूमन साल भर पहले तक हमारे देश में बुलडोजर के रूप में उस जेसीबी मशीन को जाना जाता था, जिसका बड़े पैमाने पर उत्पादन अब भारत में भी होने लगा है। दरअसल जेसीबी ‘जेम्सफोर्ट सिरील बेम्सफोर्ड’ नामक उस कंपनी का संक्षिप्त रूप है, जिसकी स्थापना ब्रिटेन में १९४६ में हुई। इसी कंपनी के गुजरात स्थित कारखाने के उद्घाटन समारोह में ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जानसन गर्व के साथ जेसीबी मशीन पर चढ़े। अगर आजादी के पहले यह मशीन भारत आ गई होती तो शायद इसका भी ‘विदेशी’ कहकर विरोध होता। दुनिया में और भी कई कंपनियां बुलडोजर बनाती हैं, लेकिन हमारे यहां ज्यादा लोकप्रिय जेसीबी ही है।
भारतीय राजनीति के इस दौर को इतिहास संभवत: ‘मशीनों के राजनीतिकरण’ के रूप में याद रखेगा। वरना इसके पहले मशीन के रूप में केवल साइकिल या घड़ी सियासी मैदान में थी, लेकिन मामला अब बुलडोजर और लाउड स्पीकर तक आ गया है। भविष्य में मोबाइल फोन और पोडकास्ट वगैरह भी सियासत का प्रतीक बन सकते हैं। उनका औचित्य ठहराने के लिए वाजिब तर्क भी ढूंढ लिए जा सकते हैं।
वास्तव में जेसीबी बीती सदी की पहली चौथाई में उस वक्त की ईजाद है, जब अमेरिका जैसे देशों में खेती का तेजी से मशीनीकरण होने लगा था। जेम्स और अर्ल ने ट्रैक्टर के आगे विशाल फावड़े जैसा पंजा जोड़कर नई मशीन बुलडोजर तैयार की ताकि खेत की मिट्टी तेजी से खोदी जा सके। लेकिन अब बुलडोजर खोदने, लादने, ध्वस्त करने, तोड़ने और सबक सिखाने के काम भी आने लगा है।
आधुनिक भारत में बुलडोजर की अलग ही कहानी है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव न होते तो शायद बुलडोजर को वैसी अहमियत न मिलती, जैसी अब देश के कई राज्यों में मिल रही हैं। सरकारें और मुख्‍यमंत्री इनमें अपनी पहचान बूझ रहे हैं या फिर उससे बचने की कोशिश कर रहे हैं। हाल में हुए उप्र विधानसभा चुनाव में प्रचार के दौरान समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सीएम योगी आदित्यनाथ पर आरोप लगाया कि वो बुलडोजर बाबा हैं। इसके पहले भाजपा इस मुद्दे पर कुछ रक्षात्मक मुद्रा में थी, लेकिन जैसे ही अखिलेश ने ‘बुलडोजर बाबा’ कहा, वैसे ही योगी और उनकी पार्टी ने इसे रूद्राक्ष माला की तरह पहन लिया। योगी को जिस धाकड़ पहचान की दरकार थी, वो उन्हें मिल गई। यानी बाबा जिस पर कुपित होते हैं, उसको मिट्टी में मिला देते हैं। योगी का यह संहारक रूप भाजपा को चुनाव में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण में भी मददगार हुआ। इसके बाद यह बुलडोजर हर जगह योगी के साथ चस्पा हो गया। बहुत से लोगों को इसमें एक आश्वस्ति-सी नजर आने लगी।
उप्र में बुलडोजर ने एक ‘रथ’ की शक्ल ले ली। इसका तुरंत असर मध्यप्रदेश में दिखा, जहां मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने दंगों के आरोपियों के घरों पर बुलडोजर चलवा दिए। अब प्रशासन खुद समझ गया है कि कब, कहां, क्यूं और कैसे बुलडोजर चलाना है। आश्चर्य नहीं कि कल को हर जिले में बुलडोजर पलटन भी नजर आए। उधर गुजरात में कई शहरो में बुलडोजर की आक्रामकता देखकर अनेक लोगों द्वारा खुद ही अतिक्रमण हटाने की खबर भी आई। इस मायने में बुलडोजर पुलिस के डंडे से भी ज्यादा कामयाब यंत्र माना जा रहा है। यूँ बुलडोजर खुद अंधा होता है, इसलिए नियम-कायदों की आड़ में गरीबों को नेस्तनाबूद करने में भी नहीं हिचकता। यानी बुलडोजर ने आशियानों की जड़ें ही नहीं खोदीं, अतिक्रमणों को भी हिंदू-मुसलमानों में बांट दिया।
राजस्थान के अलवर जिले में तो और भी अजब बुलडोजर कथा लिखी गई। वहां भाजपा शासित नगर पालिका ने रास्ता चौड़ा करने के नाम पर ३०० बरस पुराने मंदिरों को भी जमींदोज कर दिया। तब यह कानूनी कार्रवाई थी, लेकिन जैसे ही इसका राजनीतिक कोण समझ आया, राज्य में भाजपा ने इसको लेकर सत्तारूढ़ कांग्रेस को घेरना शुरू कर दिया। कांग्रेस भी इस राजनीतिक बुलडोजर का ठेठ जवाब देने के बजाए रक्षात्मक हो गई और ढहाए गए मंदिरों पर जवाब तलब करने की बजाए वह उन्हें फिर से बनाने का भरोसा दिला रही है। यानी बुलडोजर ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ की तर्ज पर भी काम कर सकता है। इन तमाम अभियानों के बीच यह सवाल कोई नहीं पूछ रहा है कि जो तोड़े गए, वो अतिक्रमण होने देने के लिए असल जवाबदार कौन है ?
उधर गैर भाजपा शासित राज्यों में बुलडोजरों को लेकर अपेक्षित ‘राजनीतिक जागृति’ नहीं है। वो उठवा इससे अभी भी मिट्टी खुदवा रहे हैं, गारा उठवा रहे bहैं, गड्ढे भरवा रहे हैं। बुलडोजर तो छोड़िए, वो तो अभी यह भी तय नहीं कर पा रहे हैं कि लाउड स्पीकर (भोंगा) राजनीतिक मुद्दा है या सामाजिक ? राज ठाकरे और भाजपा इसी मुद्दे को सामाजिक बताकर राजनीतिक फसल काटने में लगे हैं, लेकिन अपने देश में बुलडोजर को मानवीय रिश्तों में ढालने की कोशिश भी हो रही है। उप्र में वह ‘बाबा’ की छवि लिए हुए है तो मध्यप्रदेश में वह ‘मामा’ के रिश्ते में नमूदार हो रहा है। अन्य राज्यों में वह ‘बापू’ या ‘काका’ आदि के रूप में भी सामने आ सकता है, क्योंकि बुलडोजर अब घोषित अपराधियों, ‍अतिक्रामकों, आरोपियों, संदेहियों और लक्षित लोगों पर ही नहीं चलता, वह अपने साथ एक दर्शन और मानसिकता लेकर भी चल रहा है। मानवाधिकारवादी इसका विरोध कर रहे हैं, लेकिन ‘बुलडोजरवाद’ उस पर भारी पड़ रहा है। यानी कि बुलडोजर अब अपनी औकात से कई गुना बढ़कर एक विचार में भी तब्दील हो रहा है। बच्चे भी खिलौने के रूप में बुलडोजर से खेलना पसंद कर रहे हैं। मान लें कि गुड्डे-गुड़िया का जमाना गया। खिलौना बनाने वाली कंपनियां भी गुजरे जमाने की कार, ट्रक आदि बनाना छोड़कर टाॅय बुलडोजर बनाने में जुटी हैं।
हालां‍कि, बुलडोजर और लाउड स्पीकर में यूँ कोई समानता नहीं है‍ सिवाय इसके कि एक सिर्फ गरजता है और दूसरा गरजकर ध्वस्त करता है। दोनों का आविष्कार मनुष्य ने इसीलिए किया था कि एक तो आवाज की सीमा को व्यापक किया जा सके और दूसरे खुदाई-भराई में मानव श्रम हल्का किया जा सके।
चूंकि, अब बुलडोजर ‘त्वरित न्याय’ का प्रतीक हो चुका है, इसलिए इसे चलवाने में आगा-पीछा नहीं सोचा जाता। माना जा रहा है कि आरोपी को काानूनन सजा जब मिलेगी-तब ‍मिलेगी, लेकिन उसका घर उजाड़ देने से जो कठोर संदेश जाएगा, वो कई कानूनी सजाओं पर भारी है। चिंता की बात यह है कि इस सोच की स्वीकृति बढ़ रही है। मूलत: बुलडोजर संहार और विनाश के विचार से उपजा यंत्र ही है। और जब कोई यंत्र ‘विचार’ में बदलने लगे तो क्यों न उसे राष्ट्रीय यंत्र घोषित कर दिया जाए। यह संभावना डरावनी है, लेकिन शायद भविष्य की सांस्कृतिक आहट भी यही है।

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