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भारतीय स्त्री का आदर्श प्रमाण संस्कारित ‘सीता’

डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे (महाराष्ट्र)
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पंचकन्या (भाग ३)…

प्रात:स्मरण
अहल्या द्रौपदी सीता तारा मंदोदरी तथा।
पंचकन्या ना स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम्॥
अब हम जानेंगे इस श्लोक की तृतीय पंचकन्या ‘सीता’ के बारे में। आद्य कवि वाल्मिकी रचित महाकाव्य ‘रामायण’ की नायिका (जिसे लक्ष्मी का अवतार माना जाता है) भूमिकन्या, वैदेही (विदेह, अर्थात जनक राजा की मानस कन्या), जानकी, मैथिली, जो राम की पत्नी वह रामप्रिया, रमा जैसे नामों से अलंकृत है। वह है अयोनिजा, शालीन, बुद्धिमती, संस्कारी, स्वतंत्र एवं सशक्त स्त्री व्यक्तिरेखा अर्थात ‘सीता।’ वेदकाल में खेत जोतते समय सीता यज्ञ होता था। मिथिला नरेश राजा जनक को ऐसा करते समय भूमि-गर्भ में स्थित पेटिका में यह अयोनिजा कन्या प्राप्त हुई, इसलिए उन्होंने इसका नाम सीता (सीता का अर्थ हल भी है, जो हल जोतते समय मिली) रखा। रामायण में वर्णित सीता आदर्श भारतीय स्त्री है। उसके जीवन के हर नाते का रूप आदर्श, अनुपमेय, अतुलनीय, अनुकरणीय और अनोखे चौखटे में तराशा गया है। पत्नी, कन्या, भगिनी, पुत्रवधु, भाभी, माता व महारानी आदि नातों का सर्वोच्च परिमाण नापें, तो यह लावण्यवती भारतीय स्त्री का आदर्श प्रमाण ही साबित होती है। सिवाय इसके, इन सब नातों के परे वह एक स्वतंत्र व्यक्तित्व की धनी स्त्री है। सौंदर्यवती तो वह है ही, परन्तु उस पर महारानी सुनयना तथा महाराज जनक जैसे महान माता-पिता के आदर्श संस्कार हैं, इसी लिए वह प्रत्येक प्रसंग में राम की सहगामिनी है। वनवास हो या राजमहल, राम के साथ वह असीम सुख का अनुभव करती है। शालीन, धर्म और राजनीति का सम्पूर्ण ज्ञान रखने वाली, कर्तव्यनिष्ठ एवं रावण तक जिसे उठा नहीं पाया था, उस पिनाक नामक शिवधनुष्य के साथ सहज क्रीड़ा करनेवाली सर्वगुणसम्पन्न है यह पंचकन्या।
यह जानकी तीनों सास का मन जीतने वाली है। रघुकुल भूषण श्रीराम के पराक्रम तथा पुरुषार्थ पर उसे नितांत श्रद्धा है। रावण की अशोक वाटिका में कैद रहते हुए भी वह उसका कठोर शब्दों में धिक्कार करती है। वह उसे कायर कहती है और उसकी तुलना चालाक लोमड़ी से कर रावण को चेतावनी देती है “राम सिंह हैं और मैं सिंहनी।” उसे पूरा विश्वास है कि, पति राघवेंद्र उसे खोज निकालेंगे और रावण को पराजित कर उसे बंधमुक्त करेंगे। इसी लिए समुद्र पार कर उसे श्रीराम की मुद्रिका देनेवाले हनुमान के साथ भी वह जाती नहीं। महर्षि वाल्मिकी के आश्रम में तेजस्विनी माता मैथिली अपने पुत्रों लव और कुश का संगोपन करती है और उन्हें सर्व समावेशी शिक्षा देती है। यह जनकात्मजा वैदेही संपूर्ण समर्पण, आत्मत्याग तथा धैर्य की मूर्तिमंत प्रतिमा है।
मेरी राय में सीता के सुवर्ण कंचन सम चरित्र को और अधिक उज्ज्वल बनाने वाले ३ प्रसंग रामायण को उदात्त और आदर्श बनाते हैं। पहला, जब श्रीराम रावण वध के उपरांत तुरंत उसको स्वीकार न करते हुए उसे अग्नि परीक्षा द्वारा स्वयं का निष्कलंक चारित्र्य सिद्ध करने के लिए कहते हैं। तब जानकी पति की आज्ञा को प्रमाण मानकर अग्नि प्रवेश करने का निर्णय लेती है। यहाँ साक्षात् अग्निदेव ही उसके शुद्ध चारित्र्य के साक्षी बनते हैं। दूसरा प्रसंग, जब अयोध्या में उसके चरित्र हनन से सम्बंधित जन प्रवाद के कारण, प्रजा के अनुरंजन हेतु राजा राम लक्ष्मण को गर्भवती सीता को हमेशा के लिए वन में छोड़ आने की आज्ञा देता है। तब भी सीता आज्ञा का पालन करती है। तीसरा और अंतिम प्रसंग अत्यंत गंभीर है। अश्वमेध यज्ञ की समापन बेला में राम के पास उनके पुत्रों लव-कुश को सौंप देने के पश्चात् अब तो राम सीता को स्वीकार करेंगे ऐसा प्रतीत होते-होते राजा राम सीता से कहते हैं कि, अयोध्या के प्रजाजनों के सामने उसे अपना निष्कलंक चारित्र्य सिद्ध करना होगा। अब इसके लिए सीता पृथ्वी का ही आवाहन करती है, “हे धरतीमाता, अब मेरा निष्कलंक चारित्र्य सिद्ध करने के लिए मुझे अपने गर्भ में स्थान दो।” इसी के साथ धरतीमाता भंग होकर सीता को अपने गर्भ में समा लेती है, ताकि यह भूमि कन्या चिरविश्राम कर सके। पति और पुत्रों का चिरवियोग होगा, यह सत्य तक उसे विचलित नहीं करता। ऐसी स्वाभिमानी तथा आदर्श स्त्री सीता इस प्रसंग के साथ अपने चरित्र का समापन भी उसी उन्नत माथे से करती है। इसी कारण सीता हमारी तीसरी सर्वथा प्रातःस्मरणीय ऐसी पंचकन्या है।