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महँगाई …!

राधा गोयल
नई दिल्ली
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    अरे कहाँ है महंगाई…? 
      बंद करो महँगाई का रोना। हमारे जैसे बन जाओ ना। 
      देखो ना हमारे मुख्यमंत्री ने घोषणा करी थी ‘जहाँ झुग्गी,वहीं मकान।’ हमारे साथियों ने झुग्गियाँ बनाई हुई थीं। हमारे पास चिट्ठी भेजी। “यहाँ आ जाओ। इस देस मा सरण बड़ी आसानी से मिल जात है। कोई कुछ्छो नहीं पूछता। राशनकारड और पहिचान पत्तर, बीपीएल कारड भी नेतावन के आदमी ही बनवाय दिहिन रहे।”
   बस जी उन्हीं लोगों के यहाँ हम भी पहुँच गए। पहले उनकी झुग्गी में रहे। फिर धीरे-धीरे उनकी बगल के साथ-साथ हमने भी झुग्गियाँ  बना लीं। फिर अपना बीपीएल कारड बनवा लिया। अरे हमने तो आपातकाल में भी खूब मजे किए हैं। लोगों के लिए खाने को नहीं था। दुकानों पर भी दूर-दूर खड़े होते थे, लेकिन हमारे तो मजे थे जी। जगह-जगह मंदिरों और गुरुद्वारों में लंगर लगे हुए थे। मुफ्त में खाना खिलाया जा रहा था। घर ले जाने के लिए भी दिया जा रहा था। सरकार भी सबको २ ₹ किलो चावल ४ ₹ किलो गेहूँ दे रही थी। ‘कोरोना’ काल में बहुत लोगों के अपने मर गए थे। उनका संस्कार तक नहीं कर पाए, लेकिन दान-धर्म के नाम पर उन्होंने अनाज और नकदी बाँटी। हमारे तो वारे न्यारे हो गए। फिर दिल्ली में वो कौन-सी एक जगह है कुछ शाह शाही… बाग-वाग सा नाम है शायद, वहाँ धरने के लिए डटे। दिल्ली सीमा भी इकट्ठे हुए। हमारे यहाँ कुछ लोग बताने के लिए आए, “देखो जी फलानी जगह आपने सिर्फ बैठना है। जैसा हम कहें, वैसा कहना है। खाना-पीना…जिसमें देसी घी के लड्डू, दूध -दही, खूब मेवा-मलाई मिलेगी। ओढ़ने बिछाने के लिए गर्म बिस्तरा, कपड़े धोने के लिए वाशिंग मशीन। अपने कपड़े लाने की जरूरत नहीं है। कपड़े भी वहाँ मुफ्त में मिलेंगे। साथ में हर व्यक्ति को १ हजार रुपए रोज मिलेंगे, चाहे बच्चा हो या बूढ़ा-बूढ़ी। कौन रिक्शा चलाए ? बस हमें तो यह धंधा सबसे अच्छा लगा। हम हो गए इसमें शामिल। अपने माँ- बाप को भी बुला लिया।८ हमारे बच्चे। बड़ा माल-**मत्ता उड़ाया। महँगाई वालों के लिए होगी महँगाई। हमने तो वहाँ रोज नया कच्छा-बनियान, पैण्ट-कमीज, बापू के लिए कुर्ता-पजामा, मैया के लिए धोती-पेटीकोट लिए। सब कुछ मुफत में। एक धेला नहीं देना पड़ा। बच्चे और घरवाली भी रोज दिन में जाते थे।:रात को पका हुआ खाना, देसी घी के लड्डू-मेवा भी वहाँ से भरकर मिल जाती थी। अगले दिन बीबी- बच्चे फटे-पुराने कपड़े पहन कर फिर से वहाँ पहुंच जाते थे। फिर से नए कपड़े मिल जाते थे। बहुत पैसा था भाई उन लोगों के पास। इतनी भारी भीड़ थी, जिसका कोई हिसाब नहीं था। सबको रोजाना एक १००० ₹ दिया जा रहा था। उस लालच में भीड़ भी बढ़ती जा रही थी। अजी घरों में काम करने पर मुश्किल से महीने के १० हजार ₹ जुटते हैं। यहाँ तो बिना कुछ करे एक जन को ३०हजार ₹ महीने के पड़ रहे थे। इससे बढ़िया काम कोई होगा भला ! गलियों में सफाई करने वाले भी वहीं पहुँच गए थे।
   हमें तो यह धरने वाला काम बहुत ही अच्छा लगा। बस बैठना है या सोना है। बीच-बीच में शोर मचाना है या जिस पर कहें, उन पर पत्थर फेंकने हैं। ‘हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा ही चोखा।’ क्या बढ़िया मुलायम कम्बल ओढ़ने को और पहनने को गरम स्वेटर। तर माल डटकर खाओ। खूब तर माल खाए जी। जी भर कर खाए। कितनी किस्म की तो मिठाइयाँ थीं जी। देसी घी के बेसन के लड्डू… जिनमें खूब सारी मेवा पड़ी हुई। जीवन में पहली बार खाए। भला हो इन धरना करवाने वालों का, जिनकी वजह से हमने जीवन का असली आनंद भोगा। हलुवा, पूड़ी, रबड़ी-मलाई, बादाम वाला दूध, काजू, अखरोट …अजी जीवन में पहली बार खाए। दूध-दही बेहिसाब खाया-पिया और लंबी तान कर सोए। अजी, वहाँ तो धरना दिलवाने वालों ने वाशिंग मशीन पर कपड़े धोने वाले स्वयंसेवक भी लगा रखे थे। हमें तो कुछ करना ही नहीं पड़ता था। हमें तो केवल दिन में नारे लगाने होते थे और रात को सोना होता था। हमारा काम तो केवल चक्काजाम करना था। हमें तो वहाँ कहीं महँगाई ढूँढने से भी नजर नहीं आई। धरने में तो हमारे वारे न्यारे हो गए।
    शुरू से ही इस देश में तो गरीबों के लिए बहुत हमदर्दी की भावना रही है। भीख माँगने निकलो, तो हर कोई कुछ ना कुछ दे देता है। यहाँ तो हम भीख भी नहीं माँग रहे थे। हमें तो केवल भीड़ लगानी थी। बैठकर रस्ता रोकना था, यानि सिर्फ बैठना था।
   हम तो खूब माल-मत्ता खाकर मुटिया गए थे। सत्यानाश हो उन लोगों का, जिन्होंने धरना बंद करवा दिया। अब हम तो किसी और धरने की इंतजार में हैं। धरने तो आए दिन होते ही रहते हैं और हम जैसे लोग बहुत माँग में रहते हैं। अभी तो उसी धरने में इतना जोड़ लिया है कि २ साल तक बैठकर आराम से खाएंगे। वैसे किसी को बताना मत, १ फ्लैट खरीद लिया है। उसे किराए पर चढ़ा दिया है।
    हमें तो बहुत सारे एनजीओ वाले भी मुफ्त में कपड़े दे जाते हैं और कपड़े भी ऐसे बढ़िया-बढ़िया कि, कुछ ना पूछो। हम पटरी पर दुकान लगाते हैं और उन कपड़ों को बेच देते हैं। भला हो हमारे मुख्यमंत्री जी का, जिन्होंने यह कहा था कि ‘जहाँ झुग्गी, वहीं  मकान। बिजली पानी फ्री।’ उनकी कृपा के कारण हमने जगह-जगह अपनी झुग्गियाँ बना ली हैं। बाद में पक्के मकान तो बन ही जाएंगे।
    पता नहीं किसके लिए महँगाई है ? 
    हमें तो कहीं नजर नहीं आई।
    लोगों को फालतू में शोर मचाने की आदत है…मँहगाई, महँगाई।

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