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मालवी की बाँसुरी `सुल्तान मामा`

संदीप सृजन
उज्जैन (मध्यप्रदेश) 
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मालवी बोली के कवि को श्रद्धांजलि

हिंदी और मालवी के सुप्रसिद्ध कवि,गीतकार सुल्तान मामा हिंदी काव्य मंचों पर अपनी सुरीली आवाज के लिए पहचाने जाते थे। कवि सम्मेलन मंचों पर यदि कोई उन्हें सामने से नहीं सुन रहा हो तो कहता कि क्या खूबसूरत आवाज में कवियित्री गा रही है। वाकई मालवी लोक भाषा की बाँसुरी थे मामा। ग्रामीण अंचलों में उनकी सुरीली आवाज का जादू इस तरह छाया हुआ था कि उनके द्वारा गाए हुए गीतों को महिलाएं अपने घरों में होने वाले मांगलिक अवसर शादी,सगाई,मामेरा,होली,देवी-देवता आदि की विभिन्न रस्मों में गाने लगी थी। उनकी रचनाएं देखा जाए तो लोक रचनाएं थीl जो महिलाएं सुल्तान मामा के गीत बड़े चाव से गाती थी,उन्हें भी नहीं पता कि यह मौलिक रूप से सुल्तान मामा के लिखे हुए हैं ना कि पारम्परिक है।

२ मार्च १९२८ को उज्जैन के तराना में जन्में सुल्तान अहमद खान मालवी और मालवा की शान माने जाते थे। कांग्रेस की राजनीति और कविता के साथ आपने जीवन की यात्रा की और आखरी साँस तक दोनों को जी भर के जिया। आप तराना नगर पालिका के अध्यक्ष भी रहे। कवि सम्मेलनीय पारी की शुरुआत १९९५ में मालवी के प्रसिद्ध कवि हरीश निगम के सानिध्य में शुरु की,जो अंतिम पड़ाव तक रही। सुल्तान अहमद खान का सुल्तान मामा बनना भी रोचक है-कवि हरीश निगम की पत्नी ने उन्हें भाई बनाया था और जब वे निगम जी के घर जाते तो बच्चे कहते मामा आए। बच्चों के मामा,जगत मामा बन गये और धीरे-धीरे उनकी पहचान सुल्तान मामा के रुप में ही हो गई। वे गंगा-जमनी संस्कृति के प्रतीक थे, स्वयं मुसलमान होकर भी उन्होने हिंदू देवी-देवताओं पर गीत लिखे और गाए। उनके लिखे गीत आज भी गाए जा रहे हैं। आकाशवाणी पर अनेक बार रचना पाठ कर चुके,देशभर के मंचों पर उनकी कविताएं चाव से सुनी जाती रही। इंदौर दूरदर्शन ने तराना आकर मामा पर एक डॉक्यूमेंट्री भी बनाई।
मामा सही अर्थों में जनकवि थे,सभी पर प्यार लुटाने वाले। हर कोई उन्हें अपने नजदीक महसूस करता था। अपने हर एक पहचान वाले के सुख- दु:ख में मामा शामिल होते। उनका आकर्षक व्यक्तित्व सभी को लुभाता था। छह दशक से अधिक समय तक मंचों की शान रहे सुल्तान मामा २७ मई २०१९ को दूनिया को मोहब्बत के तराने देकर अलविदा हो गये। मालवी की बाँसुरी सुल्तान मामा को विनम्र श्रद्धांजलि…l

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