सरफ़राज़ हुसैन ‘फ़राज़’
मुरादाबाद (उत्तरप्रदेश)
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खायी थीं ख़ूब तर मुफ़्त की रोटियाँ।
बन गयीं दर्दे सर मुफ़्त की रोटियाँ।
ले गयीं सब हुनर मुफ़्त की रोटियाँ।
कर गयीं दरबदर मुफ़्त की रोटियाँ।
किसको थी यह ख़बर मुफ़्त की रोटियाँ।
तोड़ देंगी कमर मुफ़्त की रोटियाँ।
जम के तारीफ़ की सबने सरकार की,
जब भी आयीं नज़र मुफ़्त की रोटियाँ।
चन्द दिन में ही ये कारे सरकार को,
कर गयीं मुअ़तबर मुफ़्त की रोटियाँ।
धीरे-धीरे सभी हो रहे आलसी,
कर रही हैं असर मुफ़्त की रोटियाँ।
नर्म लगती थीं पहले बहुत ये मगर,
बन गयीं अब ह़जर मुफ़्त की रोटियाँ।
भूल जाएँ भले हम रिफ़ाइण्ड, चना,
याद आयेंगी पर मुफ़्त की रोटियाँ।
ठण्डा रखती थीं ये पेट की आग, पर।
बन गयीं अब शरर मुफ़्त की रोटियाँ।
अगला-पिछला चुकाना पड़ेगा ह़िसाब,
खायीं आगे अगर मुफ़्त की रोटियाँ।
आज रोते हैं वो अपनी तक़दीर पर,
ख़ुश थे जो तोड़कर मुफ़्त की रोटियाँ।
जितनी अच्छी थीं पहले ये अब उतनी ही,
हो गयीं पुरख़तर मुफ़्त की रोटियाँ।
ह़ुक्मे सरकार से अब सभी की फ़राज़,
कर रहीं चश्म तर मुफ़्त की रोटियाँ।
साथ इनको मिला जब नमक का ‘फ़राज़।’
बन गयीं हमसफ़र मुफ़्त की रोटियाँ॥