ताराचन्द वर्मा ‘डाबला’
अलवर(राजस्थान)
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क्या खूब थे,
मेरे बचपन के दिन
दौड़ लगाते दूर-दूर तक,
बिना परवाह किए
एक टोली के साथ,
आँख-मिचौनी खेलते
खूब मस्ती करते,
प्रकृति के साथ।
जोर-जोर से चिल्लाते सभी,
वहीं पुराने गीत के साथ
आँधी आई-आँधी आई रेला की,
दै रे छाज्या जैला की…
और फिर हो-हल्ला करते हुए,
धूल में हो जाते लथपथ।
पता नहीं किस तरह की,
ऊर्जा होती बचपन में
न लगने का डर,
न हीं गिरने की आशंका।
मारधड़ी का खेल भी,
अजीब होता था
जब चीलडे की गेंद,
आकाश में उछाली जाती
भगदड़ मच जाती,
जिसके भी हाथ में आती
सामने वाले के पडती पोट-पोट,
और फिर हँसी के मारे हो जाते लोट-पोट।
जब भी बन्दर आते,
गाँव की टोली ले हाथ में रोटी
उछाल-उछाल कर,
फिर एक नया गीत गाते
बन्दर-बन्दर रोटी तेरी माई चोट्टी,
बन्दर-बन्दर…।
होली के दिन भी क्या गजब हुआ करते थे,
मकान की कूट पर बैठ कर
सभी एक समूह बनाकर,
जोर-जोर से होली गीत गाने लगते
सडक पर निबूलो कुन्ने लगवायो…
शाम को दादी के पोपले मुँह से,
अजीबोगरीब कहानी सुनते
पुए का पेड़ लगाते स्वप्न में,
लाल-लाल पुए तोड़कर खाते
और फिर डाकन के डर से,
रजाई में दुबक कर सो जाते।
साल में एक दिन ऐसा भी आता,
टोली के सभी लोग
पूली में आग लगाकर भागते,
और कहते घेघा घेघली,घेघा घेघली…।
कहाँ गए वो बचपन के दिन,
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन…॥
परिचय- ताराचंद वर्मा का निवास अलवर (राजस्थान) में है। साहित्यिक क्षेत्र में ‘डाबला’ उपनाम से प्रसिद्ध श्री वर्मा पेशे से शिक्षक हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी,कविताएं एवं आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। आप सतत लेखन में सक्रिय हैं।