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मैं अकेला…

प्रो. लक्ष्मी यादव
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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मैं अकेला जब भी मुझे देखती हूँ,
मैं नदी किनारे जा बैठती हूँ
ना उत्तर मिले मेरे प्रश्नों का ?
वो कल-कल सी बहती मुझे मोह लेती है।

मैं सूरज की किरणों तले बैठती हूँ,
है अंधेरा-सा छाया क्यों इस दुनिया में ?
वो किरणें मुझे राह दिखाती हैं,
मैं राह पर उनकी चलते ही जाऊँ।

वो कहती चल तुझे दुनिया दिखाऊँ,
तराज़ू की तरह है ये दुनिया
हर एक गम को वो पल में ही बांध लेती है,
मैं माटी से जुड़ कर जीवन ये बिताऊँ
वो कहती चल तुझे भरोसा दिखाऊँ।

मैं हवाओं को महसूस कर बैठती हूँ,
क्यूँ आँखों से आँसू ये बहते ही जाए
मैं गंध और ख़ुशबू लिए बहती ही जाऊँ,
वो कहती तुझे आ मैं लोरी सुनाऊँ।

मैं धीरे-धीरे सँभलती ही जाऊँ,
वो मेरे पाप और पीड़ा
बहा कर ले जाए,
मैं अकेला जब भी मुझे देखती हूँ…॥