शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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भारत में राजनीति की हालत क्या हो गई है ? नगर-नगर, प्रदेश-प्रदेश में कुछ-कुछ पड़ोसी देशों जैसी, कुछ-कुछ एशियन जैसी और कुछ-कुछ यूरोपीय जैसी। भारत में महानगर से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में राजनीति की दुर्दशा को इतिहास बनता अति शिक्षित वर्ग और अशिक्षित वर्ग आदि सब देख रहे हैं, समझ भी रहे हैं, किंतु अति निर्धन, अशिक्षित, आलस्य से भरे जनसंख्या वृद्धि के अभागे आज भी मस्तमौला हैं। सरकारी योजनाओं में विविध सेवाएं दाएं-बाएं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही हर सरकार से नाक में नकेल डाल लेते रहे हैं। और भविष्य में भी ये आलस्य से भरे लोग ऐसी सेवाएं बदस्तूर ऐसे ही लेते भी रहेंगे। ऐसी महत्वपूर्ण सेवाएं प्रदान और ग्रहण करने में किसे कैसे आपत्ति हो सकती है ? सेवा भाव का मनुज का मनुज से कम, लेकिन धर्म से अधिक गहरा नाता है।
देश-काल-वातावरण में राष्ट्र उन्नति हो या न हो, दुनियाभर के नए-नए राजनीतिक दल उन्नति के परिचायक अवश्य हैं। आज नवयुवकों में पाश्चात्य उत्साह उत्स, चरस- गांजा और कई आधुनिक आकर्षणों व नसों में अधिक रम गया है। प्रादेशिक व केंद्र सरकार इस मसले को सहजता से सहेज वैसे भी सामाजिक दायित्व की नजर से ही देखती रहीं हैं। इक्का-दुक्का बच्चों के खेल छुट-पुट पकड़ा-पकड़ी के सिवाय और कोई इलाज फिलहाल दिखाई भी नहीं देता। खैर, इससे राजनीति दुर्दशा को रतीभर फर्क कहां पड़ता है ?
कहते हैं देश को स्वतंत्रता दिलवाई कांग्रेस ने और सत्ता लगभग ६० साल तक सुचारू रूप से संभाली। १० साल बीच-बीच में विपक्ष-पक्ष के समझू राजनीति को सींचते रहे। सच कहें, यह बात सर्व सहमति से सबको माननी ही पड़ेगी कि, भारत के लोग स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात अधिक शिक्षित हो गए हैं, कतिपय लोग धन-धान्य से भी बहुत धनी हैं, कतिपय आज भी बेहद दरिद्रता से जीवनयापन कर रहे हैं। यदि ६० वर्षों का राराजनीतिक इतिहास देखा जाए तो एक पार्टी से निकली नई पार्टी गठन या दूसरी ताकतवर पार्टी में सदस्यों का दलबदल ही प्रचुर मात्रा में हुआ है।
द्वितीय युद्ध के बाद में संपूर्ण विश्व में औद्योगिकीकरण की आवाज विदेशों की भांति भारत में जितनी तीव्रता से उठी, लेकिन उतनी ही धीमी गति से रेंगती हुई जनता को लुभाती रही। नामचीन उद्योगपति राष्ट्र विकास के नाम से अपने-अपने उत्थान के लिए सरकारी संस्थाओं से ऋण लेकर अमीरी की एक के बाद एक सीढ़ी चढ़ते गए।
परिणामस्वरूप, आज कई प्रकार उद्योगों और अपनी-अपनी वित्त संस्थाओं के देश-विदेश में अधिष्ठाता बन चुके हैं।
देखा जाए तो, पिछले कई वर्षों से सफलतापूर्वक सम्पन्न मुख हो विश्व बैंक से ऋण लेकर राजनीति को एक ओर अखाड़ा बनाने में, नेताओं ने योजनाओं को लागू करने व विभिन्न क्षेत्रों में उद्योग व बांध के लिए, धनादि से सुदृढ़ता भी हुई। दूसरी ओर राजनेताओं ने अपनी महत्वाकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने के लिए आपसी संबंध बनाकर राजनीति की ऊँची गगन चुंबी इमारतें भी खड़ी कर दीं। साथ में, सामानांतर भ्रष्टाचार, कांड, घोटालों की दुकानें चलती रहीं और जनता बस यही कह सकी-
“तुम्हें गैरों से कब फुर्सत, हम अपने ग़म से कब खाली।
चलो बस हो चुका मिलना, न हम खाली न तुम खाली।॥”
जनता में ही कुछ ऊँची पहुंच वाले लोग फलते-फूलते रहे। दरबारी और दरबार भी सजते रहे, उन्नत होते रहे। अब तक धर्म के अंदर से निकले की धर्म एक नहीं, अनेक हो गए। राजे-महाराजे से डाकू-चोर, उचक्के नेताओं के दबंगी बने अपने-अपने क्षेत्रों के और अति पिछड़े ग्रामों में चंबल के आत्मसमर्पण करने वाले सरपंच बन गए। यानि राजनीति की बिसात ‘तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर’ जैसी पहेली बन गई।