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राष्ट्रभाषा व देशवासियों के कानूनी अधिकारों का प्रश्न:शंका और मंशा

डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
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भाषाओं का जागृति अभियान….

सभी पथ के साथी पूरे मनोभाव से भारत नाम और भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाने के लिए जिस प्रकार जोश और उत्साह दिखा रहे हैं, वह सराहनीय है। इसके लिए सभी को धन्यवाद।
कुछ मित्रों और साथियों ने कुछ प्रश्न और आशंकाएं भी रखी हैं, इसलिए मुझे लगता है कि हमें बिना किसी उन्माद में पड़े उन पर भी विचार करना चाहिए। ४ माँगे हैं, पहली- इंडिया नाम हटाया जाए, केवल भारत अपनाया जाए। दूसरी भारत के लिए राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी तथा राज्य के स्तर पर राज्य की भाषा को राज्यभाषा बनाया जाए। तीसरी व चौथी-भारतीय भाषाओं में न्याय तथा शिक्षा व रोजगार। जहां तक ३ मुद्दों का प्रश्न है,-जनभाषा में न्याय, शिक्षा और रोजगार तथा इंडिया नाम हटाना, भारत अपनाना, इन पर तो कहीं कोई भ्रम नहीं है। भले ही किसी को भारत नाम का मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण न लगता हो या अनावश्यक लगता हो। अब प्रश्न आता है हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का। मुझे लगता है कि, यहां यह स्पष्ट करना बहुत आवश्यक है कि हमारा उद्देश्य हिंदी का झंडा फहराना, उसे सम्मान दिलवाना या उसे अन्य भारतीय भाषाओं के बीच सर्वोच्च बनाना बिल्कुल नहीं है। इस संबंध में अपनी संक्षिप्त पृष्ठभूमि भी बताना उचित होगा। मेरा पहला आंदोलन एक विद्यार्थी के रूप में १९८८ में दिल्ली
विश्वविद्यालय में हिंदी भाषियों द्वारा अन्य भारतीय भाषाओं को पढ़ने-पढ़ाने और मातृभाषा माध्यम को लेकर ही हुआ था। मैं आज भी उन मुद्दों के साथ खड़ा हूँ। मेरे जीवन के ३३ वर्ष से भी अधिक का समय, आधे से ज्यादा जीवन हिंदी भाषी क्षेत्र में नहीं, बल्कि हिंदीतरभाषी क्षेत्रों में बीता है।
किसी व्यक्ति के लिए उसकी भाषा सर्वश्रेष्ठ और सबसे प्यारी भाषा होती है। यही होना भी चाहिए। हमारी भाषाओं के संघर्ष में मूल बिंदु भी तो यही है। विकास के लिए भी अपनी भाषा को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। यहाँ बताना आवश्यक होगा कि दुनिया के २० सर्वाधिक विकसित देश अपनी भाषा के माध्यम से ही विकसित हुए हैं, और दुनिया के २० सबसे गरीब देश वे हैं जो उस भाषा में काम करते और पढ़ते हैं, जिनके वे गुलाम थे।
यहाँ बड़ा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि, देश में त्रिभाषा सूत्र लागू किया गया, लेकिन कुछ महत्वपूर्ण मामलों के लिए कानूनी तौर पर या बिना कानून के ही अभी भी एक भाषा-सूत्र लागू है, और वह भाषा है अंग्रेजी। भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी के वर्चस्व और भारतीय भाषाओं को अपदस्थ करने के मामले पर कोई आवाज उठती नहीं दिखती। इस पर कोई विमर्श, विरोध या आंदोलन नहीं दिखाई देता। इसके चलते इस देश के लगभग ९८ फीसदी लोगों के विभिन्न कानूनी अधिकारों का हनन हो रहा है, जो अंग्रेजी नहीं जानते या अच्छी तरह नहीं जानते। इसी के कारण अंग्रेजी भारतीय भाषाओं के कंधों पर खड़ी होकर तमाम भारतीय भाषाओं को लीलती चली जा रही है। जब कभी अंग्रेजी के वर्चस्व को चुनौती दी जाती है, तो वह पुरानी अंग्रेजों वाली नीति को अपनाकर हमें आपस में लड़ा देती है और वर्चस्व अभियान में बढ़ती जाती है। हम कब अंग्रेजी के खिलाफ एकजुट होकर खड़े हुए ? क्षेत्रीय भाषाओं के सिपहसालार भी कब अपने राज्य में अंग्रेजी के खिलाफ खड़े हुए ?, क्योंकि यह मुद्दा भाषायी राजनीति के अनुकूल नहीं रहा। अगर इससे मत मिलते तो मुद्दा अंग्रेजी विरोध होता।
मूल विषय अंग्रेजी के एकाधिकार को तोड़ते हुए वहां भारतीय भाषाओं को लाना जरूरी है, ताकि हम भारतवासियों के विभिन्न कानूनी अधिकारों का हनन न हो, हमारे साथ धोखाधड़ी न हो। भाषा के मामले में कानूनी अधिकारों के हनन की बात कहां से आ गई ?
जहाँ एक भाषा सूत्र चल रहा है, जहां अंग्रेजी का एकाधिकार बना हुआ है, उनमें एक विषय तो है न्याय का। सर्वोच्च न्यायालय और ज्यादातर उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी का ही प्रावधान है। जहां क्षेत्रीय भाषाओं का प्रावधान है भी, वहाँ भी आए दिन संघर्ष करना पड़ता है। निचली अदालतों में भी भले ही राज्य की भाषाएं लागू हों, लेकिन वहां भी अंग्रेजी का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। दुनिया में कहीं और ऐसा नहीं सुना कि वहाँ के न्यायालयों में अपने देश की भाषा के बजाय विदेशी भाषा में ही न्याय मिलता हो। महात्मा गांधी जो कि लंदन में पढ़े बैरिस्टर थे। उन्होंने लिखा था, ‘इससे बड़ा जुल्म क्या हो सकता है कि मुझे अपने देश में ही इंसाफ पाने के लिए अंग्रेजी का सहारा लेना पड़े।’, लेकिन हम आज भी उस जुल्म के शिकार हैं, लेकिन खामोश हैं।
दूसरा विषय है कि राष्ट्र और राज्य स्तर के विभिन्न कानूनों के अंतर्गत जो सूचनाएं दी जानी आवश्यक हैं, उनके लिए कोई भाषा निर्धारित नहीं है। और देश में संवैधानिक रूप से कोई राष्ट्रभाषा नहीं, और राज्यों में भी राजभाषाएँ तो हैं लेकिन कोई राज्य भाषा नहीं। दोनों स्तरों पर केवल राजभाषा ही है, अर्थात सरकार के कामकाज की भाषा है। इसलिए सभी स्तरों पर सभी कंपनियाँ, संस्थान , बैंक आदि ये जानकारियां केवल अंग्रेजी में देते हैं और अंग्रेजी में दिए जाने के कारण ९८ फीसदी लोगों को समझ नहीं आता। इस प्रकार, उनके कानूनी अधिकारों का हनन होता है। इसलिए यदि राष्ट्रीय स्तर पर और राज्य के स्तर पर किसी संपर्क भाषा का प्रावधान नहीं किया जाता तो इसमें परिवर्तन कैसे होगा ? भारत की जनता को अपने कानूनी अधिकार कैसे मिलेंगे ?
मेरा यह मत है कि देश के सभी कानूनों में, वे देश के कानून हों या राज्यों के, उनमें यह प्रावधान किया जाए कि कानूनों के अंतर्गत दी जाने वाली सूचनाएँ राज्य और देश की भाषा में अवश्य दी जाएँ। भले ही अतिरिक्त भाषा के तौर पर अंग्रेजी का भी प्रयोग हो।
कोई कह सकता है कि न्याय और कानूनों के अंतर्गत केवल राज्य की भाषा में ही क्यों नहीं ? यह बात तो सही है, लेकिन भारत के संविधान में किसी भी व्यक्ति को देश के किसी भी राज्य में जाने, नौकरी या कोई काम धंधा करने, बसने और आवागमन का अधिकार है। तो हर व्यक्ति हर राज्य की भाषा सीखे, यह तो व्यवहारिक नहीं। इसलिए कानूनी तौर पर दी जाने वाली ऐसी सूचनाएँ राज्य की राजभाषा के साथ देश की राजभाषा में भी दी जाए । यह जनहित के लिए और जनता के कानूनी अधिकारों की रक्षा के लिए आवश्यक प्रतीत होता है। इसलिए यह संगत प्रतीत होता है कि उच्चतम न्यायालय में संघ की भाषा में और प्रत्येक उच्च न्यायालय में संघ और राज्य की भाषा में न्याय का प्रावधान किया जाए। यही है राष्ट्रभाषा और राज्य भाषा की माँग का मूल उद्देश्य। जब देश ने त्रिभाषा सूत्र बनाया है तो इन २ उद्देश्यों के लिए एक भाषा-सूत्र क्यों ?
सामान्य व्यक्ति या जनता तो इन्हें राष्ट्रभाषा या राष्ट्रीय संपर्क भाषा, राज्य भाषा या राज्य की संपर्क भाषा के तौर पर ही समझती है। इसलिए, इस आंदोलन में राष्ट्रीय स्तर पर इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राष्ट्रीय संपर्क भाषा के तौर पर हिंदी का प्रयोग किया गया है। अब सरकार ऐसे प्रावधान किस रूप में करे। इन प्रावधानों के लिए सरकार राष्ट्रभाषा शब्द का प्रयोग करे, राष्ट्रीय संपर्क भाषा का प्रयोग करे या राजभाषा के अंतर्गत ही कोई प्रावधान करे अथवा बिना कोई नाम किए ही ऐसे प्रावधान करे, ताकि लोगों को अपनी भाषाओं में विभिन्न कानूनों के अंतर्गत सूचनाएं प्राप्त हो सकें। यहाँ अंग्रेजी का एकभाषी-सूत्र हटे तो बात बने। यही है इस माँग के पीछे की मंशा।
भले ही इसके लिए राष्ट्रभाषा शब्द तथा राज्य भाषा शब्द का प्रयोग हो, कोई अन्य शब्द दिया जाए, राजभाषा के अंतर्गत ही आवश्यक प्रावधान किए जाएँ या कोई भी शब्द न दिया जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता। इस संबंध में विभिन्न भारतीय भाषाओं के प्रतिनिधि राजनीति से हटकर, यदि एकसाथ मिलकर बैठें तो रास्ता आसानी से निकल सकता है। फिर नेताओं का दायित्व है कि वे कोई रास्ता निकालें, लेकिन कम से कम एक बार तो हम अपनी मांगें तो देश और सरकार के सामने प्रस्तुत करें। जनता जिन शब्दों को समझती है, उन्हीं के सहारे अपनी आवाज तो उठाएँ। बात सामने आएगी, विचार होगा तो रास्ते भी निकलेंगे।

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