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रोकना होगा स्वयं के लालचीपन को

अजय जैन ‘विकल्प’
इंदौर(मध्यप्रदेश)
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पृथ्वी दिवस विशेष….

बढ़ती आबादी और आवश्यकताओं ने समस्या तो बढ़ाई है, इससे कोई असहमति नहीं है, लेकिन हमारे लालचीपन को तो भगवान और पृथ्वी भी कभी पूरा नहीं कर सकते हैं। अर्थात हमारी धरती माता किसी भी मानव की जरूरत को तो पूरा कर सकती है, पर उसके लालच को कभी नहीं। इसी दिशा में महात्मा गांधी का कहना था -‘पृथ्वी हर आदमी की जरूरत को पूरा करने के लिए पर्याप्त प्रदान करती है, लेकिन हर आदमी के लालच को नहीं।’
समझने के लिए सीधी-सीधी मोटी बात यही है कि मनुष्य को जिंदा रहना है, सबके साथ भी रहना है एवं उनकी खुशी की चिंता भी करता है तो उसे अपनी लोभी आदत छोड़नी पड़ेगी। आँकड़े बोलते हैं कि, बीते २०-२५ वर्षों में मनुष्य ने पृथ्वी के दसवें भाग के जंगल को नष्ट कर दिया है। इसके आगे यह भी चेतावनी है कि ऐसी ही प्रवृत्ति जारी रही तो एक सदी के भीतर कोई भी नहीं बचेगा, मतलब सब मिट जाएगा। कारण साफ है कि हम जरूरत की वस्तुओं का उपयोग नहीं, बल्कि उससे अधिक का दुरुपयोग कर रहे हैं।
आपको शायद जानकर आश्चर्य हो सकता है कि, सबसे समझदार बनाम बुद्धिमान मनुष्य ने ही इस धरती यानी पृथ्वी पर केवल ०.१ फीसदी होकर भी लालच के चलते सभी जंगली स्तनधारियों के ८३ प्रतिशत और सभी पौधों के ५० फीसदी का विनाश कर दिया है। अब ऐसी हालत में हम आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या छोड़ कर जाएंगे, समझाने की बात नहीं है। अर्थात अब भी अपने पर्यावरण की रक्षा और सुरक्षा करने के लिए नहीं चेते तो कुछ नहीं बचेगा। धीरे-धीरे सब नष्ट होना तय ही है।
हर वर्ष २२ अप्रैल को आने वाला ‘पृथ्वी दिवस’ इसी बात को प्रचारित करता है और सबक भी है कि, धरा की रक्षा और उसके पर्यावरण को संरक्षित करने की आवश्यकता है। तय बात है कि, यह रक्षा किसी एक की जिम्मेवारी नहीं है, सबको अपनी भूमिका अनुसार काम करना होगा। धरा और पर्यावरण संरक्षण के लिए के लिए दुनियाभर में हो रहे नुकसान को समझकर हमें सबको जागरूक करना होगा, एवं अवसर पड़े तो विरोध करने के लिए सड़क पर भी आना चाहिए। सरकारें अपने स्तर पर जो भी प्रयास करें, हम अपनी जिंदगी में उन नियमों का कड़ाई से पालन करें तथा आमजन को सचेत करने के लिए शैक्षणिक संस्थाओं के जरिए समाजों में भी पालन का आग्रह करें।
संयुक्त राष्ट्र ने २०१६ में पृथ्वी दिवस को उस दिन के रूप में चुना था, जब जलवायु परिवर्तन के विषय पर ऐतिहासिक पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। यह दिन इस बात की याद दिलाने के लिए है कि पृथ्वी और उसका पारिस्थितिक तंत्र हमें साँस एवं किसी ना किसी माध्यम में रोजग़ार भी देता है, इसलिए इसकी रक्षा का हमारा भी कर्त्तव्य बनता है। यह दिन हमारी सामूहिक जिम्मेदारी को निभाने का प्रतीक भी कहना गलत नहीं होगा, क्योंकि धरा होगी तो ही हम होंगे। इस बात की गंभीरता समझनी पड़ेगी कि, वर्तमान और भावी पीढ़ियों की आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय जरूरतों के बीच मानव को एक उचित संतुलन बनाना ही होगा। हमें प्रकृति और पृथ्वी के साथ सद्भाव को बढ़ावा देना पड़ेगा, और यह आवश्यक भी है। अगर धरा की भलाई छोड़ दी तो वो हमें छोड़ और तोड़ भी देगी। याद रखिए कि, हद से अधिक लालच बुरी बला है, और अंजाम उससे भी खतरनाक होता है। हमें अपनी आवश्यकताके साथ यहभी भूलनानहीं है कि, पेड़-पौधे, पर्यावरण, पानी, वायु, पंछी, तारे और पृथ्वी पर मौजूद हर जीव-अजीव में कोई न कोई तालमेल यानी जुड़ाव अवश्य है। हम अगर धरा का नुकसान करेंगे तो उस मेल यानी रिश्ते को भी नुकसान तय है-भले ही वो प्रदूषण का हो या हरियाली मिटाने का अथवा पानी को जहरीला करने का।
इसलिए, पुनश्चः इस बात को स्वीकार करते हुए चिंतन करके अमल कीजिए कि, खुद को धरने अर्थात सबके अच्छे भविष्य यानी जीने के लिए धरा को धरा ही रहने दीजिए, अन्यथा सम्पूर्ण मानव जाति का विनाश कोई नहीं रोक सकेगा। और तब पछतावे के सिवा हाथ में कुछ नहीं आएगा, क्योंकि बहुत देर हो चुकी होगी।
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