हरिहर सिंह चौहान
इन्दौर (मध्यप्रदेश )
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छोटे-मोटे, दुबले-पतले कैसे भी कर्मचारी हों, कोई से भी विभाग में उनका कुनबा हो, भ्रष्ट तंत्र की दीमक उस पर अपना काम दिखा ही देती है। उसको धन-सम्पदा की कोई कमी नहीं रहती है। उनका खजाना मानों स्वयं कुबेर देवता ही बड़े-बड़े घड़ों में भर रहे होते हैं। आजकल जहां भी देखो, ऐसे ही धन-दौलत के लोभी मिल रहे हैं, जो छोटी-मोटी नौकरी के बल पर ना जाने कौन सी विधा से धन की देवी लक्ष्मी जी को प्रसन्न कर लेते हैं, यह देखकर दिमाग का दही ही हो जाता है। अरे, कोई कर्मचारी जिनकी कार में कई किलो सोना, नगदी की माया ही माया हो और वह भी शहर से दूर जंगल में पड़ी मिले ? जिसका वह सब माल है, वह स्वयं विदेशी धरती पर मस्ती का आंनद उठा रहा हो! यह क्या है! भाई समझ में नहीं आता…। क्या लोकसेवक का भण्डार भरा है! क्या यह कोई देवी-देवताओं, पीर-फकीरों का आशीष है, जो सिर्फ इन्हें ही मिलता है! तभी तो अनुकम्पा नियुक्ति पर आने वाले के पास यह सब माल मिल रहा है। अरे, यह क्या है! कहीं कोई जादू की छड़ी तो नहीं मिल गई थी या उसके पास कोई पारस पत्थर तो नहीं था…? नाम लोक सेवक, काम धन संग्रह… मानों चाँदी की चम्मच सरकारी नौकरी में ही रहती है। ऐसा लगता है, जैसे ऐसे रिश्वतखोर लोगों की सब अंगुली कड़ाही में ही रहती हैं। तभी तो फल-फूल रहे होते हैं, चाहे साहब हो या कर्मचारी। मानो विधाता ने एक अलग रेखा खींच रखी हो उन लोगों के हाथों में! तभी तो दौलत के इतने-इतने भण्डार मिल रहे हैं। जब कार्रवाई होती है, तब राजा-महाराजाओं की तरह अपनी काली कमाई को जनता के सामने भण्डार में खुलता हुआ दिखाया जाता है, तो जनता भी दाँतों तले अँगुलियाँ दबा लेती है। भ्रष्ट लोगों का यह चरित्र चित्रण तभी देखने को मिलता है, जब उनका भण्डार खोला जाता है।