शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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संवाद जन-नैतिकता से…
नेताओं को भी आयकर देना चाहिए। नेताओं को पद पाने पर एक ही पेंशन देनी चाहिए, बार-बार पद पाने पर बार-बार पेंशन देने की व्यस्था नहीं होनी चाहिए। एक विकासशील देश में ऐसी व्यवस्था कहां तक शोभनीय है ? और जो धर्म की आड़ में बैठकर लाखों-करोड़ लोग (कुछेक साधु-संतों को छोड़कर, शेष जो स्वयं को साधुसंत व धर्म का रक्षक मानते हैं) हैं, उन्हें भी मेहनत कर कर चुकाना चाहिए ।
यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि हमारा देश न तो गरीब है, न है लाचार। सबको बैठकर मुफ़्त का खाना बखूबी आता है। जिसके हाथ जहां तक पहुंचते हैं, वह वहां तक हाथ फैला मजे से खा रहा है। बात तब बिगड़ती है, जब उसमें अवरोध उत्पन्न हो जाए तो, किसी भी सरकार को लज्जित करना इन्हीं लोगों को बड़ी आसानी से आता है, जबकि वास्तव में लोग ही आलसी, बेईमान, धोखेबाज, विश्वासघात व भ्रष्टाचार जैसी प्रवृत्तियों में लिप्त हैं।
नि:संदेह, देश की जनता में नैतिक मूल्यों की जो गिरावट है, वही देश को सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक दृष्टि से दीमक की तरह चाट रही है। इससे कैसे निपटा जाए, विषय विचारणीय है, क्योंकि यह प्राचीन समय से चली आ रही मजबूत मनोवृत्ति है, जो मानव को वर्गों में बांट देती है। यह नई-नई विचारधाराओं को जन्म दे देती है, नई-नई समस्याएं उत्पन्न कर देती है, परंतु अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए किसी भी हालत में स्थाई समाधान होने ही नहीं देती।
देशहित को सर्वोपरि रख यह सरकारों (पक्ष-विपक्ष) को सोचना व विचारना चाहिए कि किस प्रकार से नियम, कानून, व्यवस्था को लागू किया जाए, जो अत्यधिक व्यावहारिक हो।
पढ़ी-लिखी समृद्ध जनता, वर्गों, धर्मों, जाति और विचारधाराओं में विभाजित जनता से बिना किसी अवरोध के कैसे निपटाया जाए ?
सरकार ने जो कानून-नियम आदि बनाए हैं, यह प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है, उसे स्वीकार करे और अपनाए। तत्पश्चात, जो-जो व्यवधान उत्पन्न होते हैं, उनका निवारण सरकार द्वारा निष्पक्ष हो कर किया जाए- जैसे आयकर और जीएसटी। यह दोनों कर वेतन प्राप्त वर्ग, व्यापारी वर्ग व उद्योग वर्ग देते हैं यानि दोहरी-तिहरी बार कर देते हैं। और जो छुट-पुट कार्य करके साठ-सत्तर हजार प्रति महीने कमाते हैं, वह वर्ग आयकर कभी नहीं देता, क्योंकि वह वर्ग बढ़ई है, वह वर्ग घरों में साफ-सफाई करता है, वह वर्ग ठेले पर सब्जियाँ-फल बेचता है, वह कपड़े प्रेस करता है, वह वर्ग दर्जी का काम करता है, वह वर्ग ऑटोरिक्शा चालक है इत्यादि। ये उक्त वर्ग वर्ग सरकार की दृष्टि में निम्न वर्ग हैं, जिसके लिए सरकार अपनी सारी ताकत योजनाओं को बनाने में झोंक देती है और मुफ्त में अनाज आदि से लेकर बहुत-सी योजनाएं उपहार में दे देती है। वास्तव में इन्हीं लोगों के पास अधिक संपत्ति है-महानगरों, शहरों में २-३ छोटे-छोटे मकान हैं, जिससे किराया-आमदनी भी प्राप्त करते हैं। बच्चे मुफ्त की शिक्षा प्राप्त करते हैं, चिकित्सा की मुफ्त योजनाएं ऐसे वर्ग के काम आती हैं। बस-रेल यात्रा की वर्ग सुविधाएं भी सरकार देती है, बिजली के बिल यही वर्ग कभी नहीं भरता। स्ट्रीट लाइट के खम्भे से इनके घरों में सदैव रोशनी रहती है, सरकार या बैंक से ऋण न लेना खूब पसंद करते हैं, लेकिन ऋण चुकाना इनकी फितरत में नहीं होता और गाँव में खेती-बाड़ी व २-३तीन मंजिला मकान होता है। परिवार के प्रत्येक पुरुष के पास मोटरसाइकिल होती है। कुछेक के पास कार व टैक्टर और सोना-चाँदी भी इन्हीं लोगों के पास होता है। रहन-सहन दिखावे में ऐसा रखते हैं कि बस दुनिया में आए हैं और बस, गुजर-बसर कर रहे हैं। ऐसे १०-१५ करोड़ लोगों का कर ईमानदारी से कर देने वाले ६-७ करोड़ लोगों से कर में वृद्धि कर सरकार वसूलती रहती है। सरकार नारों पर ही ७०-७५ सालों से ऐसी दशाओं में धृतराष्ट्र बन चलती रही हैं, चल रही हैं और चलती रहेंगी,
किन्तु वेतनभोगी कर्मचारियों से अपेक्षाएं की जाएंगी कि सारा वेतन जीवन सुरक्षा बीमा, चिकित्सा जीवन बीमा, म्यूचुअल फंड, एनएससी, केएससी, और भी जितनी आयकर बचाने का प्रलोभन देती योजनाओं में खर्च कर दे, और अपने रहन-सहन के स्तर के रखरखाव में, बच्चों को उच्च शिक्षा देने के लिए ऋण ले सदैव चलता रहे। सरकार की सदैव यही चेष्टा रहेगी ही कि अल्पसंख्यक का कैरम बोर्ड खेल व आरक्षण का टूर्नामेंट चुनाव में मत चूसने के लिए सर्वथा सुरक्षित रहे।
क्या सरकार से उम्मीद कर सकते हैं कि, भविष्य में सरकार की लोचशील प्रवृत्ति समाज के प्रत्येक वर्ग को एक स्थाई व्यवस्था देने में, देश का भविष्य निर्माण व निर्धारण में सहायक सिद्ध होगी ?
आप और हम केवल विचार ही केवल कर सकते हैं, और कुछ नहीं। किसी को मानने व न मानने के लिए बाध्य नहीं कर सकते। जो कार्य सरकार की व्यवस्था के अंतर्गत आते हैं, उन्हें सरकार को अपनी दृष्टि से ही निपटना है।