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समाज और देश पर कलंक है मुफ्तखोरी

राधा गोयल
नई दिल्ली
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मुफ्तखोरी और राष्ट्र का विकास…

देश के लोगों में मुफ्तखोरी की आदत डालना देश के विकास को अवरुद्ध करना है, लेकिन देश के कर्णधारों को क्या कहें, जो कुर्सी की खातिर हमेशा ऐसी योजनाएँ लाते हैं और मुफ्तखोरी को बढ़ावा देते हैं। चुनाव के दौरान तो मुफ्त की कितनी ही योजनाएँ लाई जाती हैं। मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त राशन। जब सब कुछ मुफ्त मिलेगा, तो कोई काम ही क्यों करेगा ? और ऐसा ही हो रहा है, जो देश की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ी बाधा है। इसमें हमेशा पिसती है मध्यम वर्ग की जनता, वह कर भी देती है और मुश्किल से जीवन-यापन करती है। सरकार उस पैसे को मुफ्तखोरों में बाँटती है। गरीब तो अपने-आपको गरीब कहकर कुछ माँग भी लेता है। उसे मुफ्त मिल भी जाता है। बहुत सारे एनजीओ भी उनकी सहायता करते रहते हैं, लेकिन मध्यम वर्ग का व्यक्ति कहाँ जाए ? कहाँ जाकर अपना रोना रोए ?, वह दिल में घुट कर रह जाता है। एक और योजना है ‘जहाँ झुग्गी, वहीं मकान। उसकी बात करना बेकार है।

मुफ्तखोरी पर मुझे कहानी याद आ रही है। उस देश का नाम है ‘स्विट्जरलैंड’। ऐसा देश, जो बर्फीली वादियों से ढका होकर सुंदरता की अद्भुत कृति है। हरियाली हो या बर्फ, आँखें जिधर भी जाएं, पलक झपकना भूल जाएं। दुनिया का सबसे सम्पन्न देश है स्विट्जरलैंड।
आज से लगभग 50-60 साल पहले स्विट्जरलैंड में १ निजी बैंक की स्थापना हुई- ‘स्विस बैंक’। इस बैंक के नियम दुनिया के अन्य बैंकों से भिन्न थे। ये अपने ग्राहकों से उसके पैसे के रख-रखाव और गोपनीयता के बदले ग्राहक से पैसे वसूलता था। साथ ही गोपनीयता की गारंटी। सालभर में इसकी ख्याति विश्वभर में फैल चुकी थी। रिचार्ज कार्ड की तरह एक नम्बर खाताधारक को दिया जाता, साथ ही एक पासवर्ड दिया जाता। बस, जिसके पास वह होगा, बैंक उसी को जानता थ, लेकिन… बैंक का एक नियम था कि अगर ७ साल तक कोई ट्रांजेक्शन नहीं हुआ या खाते को ७ साल तक नहीं छेड़ा गया तो बैंक खाता बंद करके रकम पर अधिकार जमा लेगा। यानी रकम बैंक की।
रोज दुनियाभर में न जाने कितने माफिया मारे जाते हैं, नेता पकड़े जाते हैं और कितनों को उम्रकैद होती है। ऐसी स्थिति में न जाने कितने ऐसे खाते थे, जो बैंक में बंद हो चुके थे। सन् २००० की नयी सदी के अवसर पर बैंक ने ऐसे खातों को खोला, तो उनमें मिला काला धन पूरी दुनिया के ४० फीसदी काले धन के बराबर था।
ये रकम हमारी कल्पना से बाहर है। शायद बैंक भी नहीं समझ पा रहा था, कि क्या किया जाए इस रकम का। ये सोचते-सोचते बैंक ने एक घोषणा की और पूरे स्विट्जरलैंड के नागरिकों से राय माँगी, कि इसका क्या करें। सरकार की तरफ से १५ दिन चले सर्वे में ९९.२ फीसदी लोगों की राय थी कि इस रकम को देश की सुंदरता बढ़ाने और विदेशी पर्यटकों की सुख-सुविधाओं और विकास में खर्च किया जाए।
सर्वे के नतीजे हम भारतीयों के लिए चौंकाने वाले हैं, लेकिन राष्ट्रभक्त स्विटरजरलैंड की जनता के लिए ये साधारण बात थी। उन्होंने हराम के पैसों को नकार दिया। मुफ्त नहीं चाहिए, ये स्पष्ट सर्वे हुआ।
चौंकाने वाला काम दूसरे दिन हुआ। २५ जनवरी को स्विट्जरलैंड की जनता बैनर लेकर सरकारी सर्वे चैनल के बाहर खड़ी थी। उनका कहना था जो ०.८ प्रतिशत लोग हैं मुफ्त का खाने वाले, उनके नाम सार्वजनिक करो। ये समाज और स्विट्जरलैंड पर कलंक है। काफी मशक्कत के बाद सरकार ने मुफ्त की माँग करने वालों को दंडित करने का आश्वासन दिया, तब जनता शांत हुई।

यदि हर देश में ऐसा ही हो, तो उस देश को बुलंदियों तक पहुँचने से कोई नहीं रोक सकता। जिस देश में मुफ्तखोरी को बढ़ावा दिया जाए, उस देश के विनाश में ज्यादा समय नहीं लगता। आखिर सरकार जो मुफ्त बाँटती है, वह करदाता के पैसों से ही तो बाँटती है। यदि ये करदाता भी काम करना छोड़ दें तो क्या होगा ? विचारणीय और यक्ष प्रश्न है।