कुल पृष्ठ दर्शन : 22

You are currently viewing सामान्य सुधार हुए, आवश्यक मुख्य सुधार नहीं किए

सामान्य सुधार हुए, आवश्यक मुख्य सुधार नहीं किए

संशोधित मानक देवनागरी लिपि पर प्रतिक्रियाएँ….

मुम्बई (महाराष्ट्र)।

केंद्रीय हिंदी निदेशालय (उच्च शिक्षा विभाग, भारत सरकार) द्वारा संशोधित मानक देवनागरी लिपि में एक संशोधन के लिए निदेशालय को धन्यवाद देना चाहूंगा। यह धन्यवाद विशेषकर उन राज्यों की ओर से, जहां ळ ध्वनि है लेकिन उसका लिपि चिह्न मानक देवनागरी लिपि में नहीं था।
इस कारण मराठी और कोंकणी भाषियों को बहुत कठिनाई होती थी। जब उनके या स्थान के नाम में ळ के बजाय ल लिखा जाता था तो आपत्ति होना स्वाभाविक भी था। राजभाषा विभाग (गृह मंत्रालय) के क्षेत्रीय उपनिदेशक के कार्यकाल के दौरान विभिन्न निरीक्षणों और बैठकों के दौरान यह विषय मेरे सामने लाया जाता था। इसलिए इस विषय को पूर्व में भी उठाता रहा हूँ। इसके लिए कुछ दिन पहले मैंने निदेशालय के निदेशक प्रो. सुनील बाबूराव कुलकर्णी से संपर्क भी किया था, क्योंकि श्री कुलकर्णी स्वयं महाराष्ट्र से हैं, इसलिए वे इस समस्या को बखूबी समझते हैं, शायद इसलिए यह संभव हो सका है।
◾डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’ (महाराष्ट्र)

   🔵 इस संस्करण में कुछ सामान्य सुधार हुए हैं, किंतु आवश्यक मुख्य सुधार जो जरूरी होने चाहिए थे, वे नहीं किए गए हैं। पूर्व प्रचलित दुविधात्मक एवं अवैज्ञानिक नियमों को वैसे ही मानक बने रहने दिया गया है। हिंदी एवं देवनागरी लिपि का भविष्य उज्जवल होने के बजाए ठहराव ही बना रहेगा, ऐसा लगता 
है।
◾हरिराम पंसारी (उड़ीसा)
   🔵मुझे नहीं लगता कि कुछ भी नयी बात इस पुस्तक में कही गयी है। यूनिकोड के प्रचलन में आने के बाद सवर्गीय व्यंजनों‌ पर पंचमाक्षर के बजाय अनुस्वार को जारी रखने का कोई औचित्य नहीं है। एक ओर तो हम हिन्दी को अन्तरराष्ट्रीय पटल पर देखना चाहते हैं, विदेशी छात्रों को पढ़ाना चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर उसकी लिपि को हमने सर्वथा अवैज्ञानिक बना दिया है।
झंडा का उच्चारण हिन्दीभाषी को ज्ञात है लेकिन वह झम्डा नहीं है, यह आप किसी विदेशी को कैसे समझाएँगे ? उसे तो नहीं पता कि झंडा को‌ वस्तुतः झण्डा बोला जाता है। इसी प्रकार वंशी को दक्षिण वाले वम्शी बोलते हैं और हंस को हम्स। कुछ पञ्जाबी लोग सिंह को सिॅंह बोलते हैं। इस पक्ष का समाधान सम्भव था, लेकिन दिया नहीं गया। तमिल, मलयाली में जेडएच से दर्शायी जानेवाली ध्वनि होती हैं, जो कोझिकोड, अलाप्पुझा, कनिमोज्झी आदि में प्रयोग होती है। उसके लिए नागरी लिपि में कोई व्यवस्था नहीं की गयी। ये कमियाँ इसलिए रह जाती हैं कि हम जैसे जो लोग हिन्दी और इतर भारतीय भाषाओं के वास्तविक हितचिन्तक हैं, उनसे कोई राय नहीं ली जाती। इसके विपरीत उन लोगों को समितियों में शामिल किया जाता है, जिन्हें हिन्दी या देवनागरी के बारे में गम्भीरता से सोचने के लिए समय ही नहीं है।कुल मिलाकर यह प्रयास पिष्टपेषण ही है।
◾रामवृक्ष सिंह (उप्र)

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई (महाराष्ट्र)