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स्वार्थप्रेरित राजनीति से उपजा अंधेरा

ललित गर्ग
दिल्ली
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दिल्ली के मुख्यमंत्री ने एक अजीबोगरीब बयान देते हुए भारतीय रुपए पर भगवान गणेश और माता लक्ष्मी का चित्र लगाने की मांग की। गुजरात एवं हिमाचल प्रदेश चुनाव से ठीक पहले मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने हिंदुत्व कार्ड खेलते हुए तर्क दिया कि रुपए पर एक तरफ गांधी जी औऱ दूसरी तरफ लक्ष्मी-गणेश की फोटो होगी तो इससे पूरे देश को उनका आशीर्वाद मिलने के साथ आर्थिक संकट से मुक्ति मिलेगी। निश्चित ही लक्ष्मी जी को समृद्धि की देवी माना गया है तो गणेश जी सभी विघ्न दूर करते हैं, लेकिन प्रश्न है कि धर्मनिरपेक्ष भारत में ऐसे सवाल खड़े होना देश के लिए क्या अच्छी बात है ? क्या अपनी राजनीति को चमकाने के लिए एकाएक ऐसे बयान से बहुसंख्यक समाज को आकर्षित करना औचित्यपूर्ण है ? क्या इस तरह की मूल्यहीन एवं स्वार्थप्रेरित राजनीति लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अवरोध एवं सौहार्द-भंग का कारण नहीं बनती ? देश संविधान से चलता है, किसी धर्म से नहीं ? अब ऐसे कई सवाल उठने लगे हैं, विवाद खडे़ हो रहे हैं एवं देश की एकता एवं सांझा-संस्कृति की अक्षुण्णता को लेकर राजनीतिक चर्चाएं गरमा रही है। आर्थिक विकास हर व्यक्ति की अभीप्सा है, लेकिन क्या रुपए पर देवी-देवता की तस्वीर छाप देने मात्र से यह संभव है ?
भारत एक लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, जहां विभिन्न जाति, धर्म, वर्ग, भाषा, मान्यता के लोग मिल-जुलकर रहते हैं। यही विविधता में एकता भारत की ताकत भी है और सौन्दर्य भी है। किसी भी राष्ट्र को उन्नत और समृद्धि की ओर अग्रसर करने में सक्रिय, साफ-सुथरी, स्वार्थरहित एवं मूल्य आधारित राजनीति की सर्वाधिक आवश्यकता रहती है। वही शासन-व्यवस्था या राजनीति अच्छी है, जो किसी एक धर्म के प्रति विशेष झुकाव नहीं रखती। मुद्रा पर महात्मा गांधी के चित्र का औचित्य समझा जा सकता है, जब सवाल उठाया गया कि गांधीजी ही क्यों ? देश में और भी कई ऐसे नाम थे जो देश को आजाद कराने में आगे खड़े रहे। इस संबंध में आरबीआई ने बताया कि गांधी जी का इसलिए चयन किया गया ताकि कोई वर्ग उनका विरोध नहीं कर सकता था। इसके अलावा देश को अंग्रेजों से आजाद कराने में उनकी अहम भूमिका रही। लेकिन अगर वहां देवताओं की तस्वीरें लगेंगी, तो एक नया विवाद एवं बिखराव का सिलसिला शुरू होगा। अन्य धर्मों की ओर से भी ऐसी ही मांग उठेगी और शायद मुद्रा का धार्मिकीकरण हो जाएगा। फिर आप मुद्रा पर किन-किन धर्म-प्रमुखों की तस्वीरें लगाते रहेंगे ?
किसी एक धर्म-विशेष के देवी-देवताओं की तस्वीर मुद्रा पर देने से अन्य मजहब के लोगों द्वारा आपत्ति किया जाना स्वाभाविक है, पर इसकी गंभीरता समझे बिना राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित श्री केजरीवाल का कहना है कि अगर इंडोनेशिया में लगाई जा सकती है तो भारत में क्यों नहीं ? इस तरह एक स्थापित राजनेता का देश की जनता को बांटने वाला बयान हास्यास्पद होने के साथ चिन्ताजनक है। प्रश्न है कि मुस्लिम मतदाताओं को आकर्षित करने वाले अरविन्द केजरीवाल एकाएक हिन्दू मतदाताओं को क्यों रिझाने लगे ? राजनीति एक विचारधारा एवं सिद्धान्त पर चलनी चाहिए। मुद्रा पर किसी देव या देवी की मूर्ति होने से देश की अर्थव्यवस्था को बल मिलेगा और देश में माहौल दैवीय हो जाएगा, अच्छी सोच है। ऐसी सोच रखने वाले कौन लोग है, उसका क्या स्वार्थ है, यह विशेष महत्व रखता है।
हमारे लोकतंत्र में स्वार्थप्रेरित इस तरह के सुझावों के लिए न जगह है और न समय। देश के संविधान की यही भावना है कि कोई भी राजनीतिक दल मत के लिए धर्म या उसके प्रतीकों का इस्तेमाल न करे।
जहां तक प्रश्न इंडोनेशिया का है, तो गौर करने वाली बात यह है कि इंडोनेशिया में हिंदू देवताओं और प्रतीकों का उपयोग आम बात है क्योंकि शुरूआती शताब्दियों में, इंडोनेशिया हिंदू धर्म से काफी प्रभावित था। जिसे इस देश में स्थित विभिन्न मंदिरों, मूर्तियों में देखा जा सकता है। इंडोनेशिया एवं भारत की राजनीतिक, संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक स्थितियों में काफी भिन्नता है। आधिकारिक तौर पर वहां ६ धर्मों को मान्यता मिली हुई है, जबकि भारत में किसी धर्म को आधिकारिक मान्यता नहीं है। विवाद से बचने के लिए ही संविधान निर्माताओं ने न तो ईसाई परंपरा का ग्रेगोरियन कैलेंडर अपनाया और न सनातन परंपरा का विक्रम संवत। हमने शक संवत को आधिकारिक मान्यता दी। हाँ, इंडोनेशिया का हमें अध्ययन करना चाहिए, क्योंकि वहां की राजनीति या नीतियां कट्टरता को पोषित नहीं करती हैं। भारत में विभिन्न धर्मों में लोगों की सोच परस्पर उस तरह मेल नहीं खाती, जिस तरह इंडोनेशिया में हम देखते हैं। अगर भारत को अपनी मुद्राओं पर धार्मिक प्रतीक चाहिए, तो सभी दलों को मिल-बैठकर विचार करना होगा। साथ ही सांविधानिक प्रावधानों को परखते हुए आगे बढ़ना होगा। अगर हम केवल राजनीतिक गणित, स्वार्थप्रेरित मत बैंक पर नजर रखेंगे तो सांप्रदायिक आग में झुलसते रहेंगे।
भारत में देवताओं की तस्वीर वाली मुद्राओं की मांग नई नहीं है, पर हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि भारत में एक समुदाय की धार्मिक भावना दूसरे समुदाय को आहत कर देती है और इसके दुष्परिणामों से हम लहुलूहान होते रहे हैं।
दुनिया की टूटती-बिखरती अर्थ-व्यवस्था के बीच भारत की अर्थ-व्यवस्था संभली हुई है तो यह किन्हीं दैवीय शक्तियों के साथ साफ-सुथरी नीति से शासन करने वालों की देन है। इन सुखद स्थितियों की प्रशंसा की बजाय उसकी आलोचना उचित नहीं है।
क्या नोटों पर देवी-देवताओं के चित्र लगा देने एवं बेशुमार मुफ्त रेवडियां बांट देने से देश विकसित और अमीर हो जाएगा ? रेवडियां बांटते-बांटते जब राजनीति अपनी पहुंच सत्ता तक बनाने के लिए धार्मिक प्रतीक एवं मुद्दे खोजने लगती है, तो न केवल चिंता होती है, बल्कि अफसोस का भाव भी जागता है। इस तरह की राजनीति से भेद-रेखाएं जन्मेंगी तो भारत भारत नहीं रहेगा। इस तरह धार्मिक भावनाओं को राजनीति का मोहरा बनाकर देश की जनता को गुमराह करने से न केवल राजनीतिक दलों का, बल्कि राष्ट्र का भविष्य भी धुंधलाता है।

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