हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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अपने ही क्यों झेले दंश हमेशा,
रह कर खामोश बस सदा-सदा
बेगाने लूट गए खजाने हो चाहे,
कर के चापलूसियां यदा-कदा।
हम मांगे तो कहते हैं लिहाज करो,
वे मांगे तो कहते हैं बस ले लो जी
बहुतेरा हुआ दरिया दिल है गैरों को,
कुछ तो अपनों को भी अब दे दो जी।
वे लूटते आए हर ओर से हैं हमेशा,
कहीं अपने हुए, कहीं खुशामद की
हम बने रहे बस तुम्हारे ही हितैषी,
क्या हमारी तभी ही यूँ हजामत की ?
दबी जुमान से हमने आवाज उठाई,
खामोश रहना ही हमारी बदसलूकी है ?
वह दरियादिली भी है किस काम की ?
जो गैरों को छकाते, अपनी जोरू भूखी है।
माना परमार्थ महान है मालिक,
पर नैमेतिक स्वार्थ भी जरूरी है
हम न कहते स्वप्न में भी ये बातें,
पर यह खाली पेट की मजबूरी है।
उनको छकाओ जी खूब लुटाओ,
हमने कहां तुम्हें कब रोका-टोका है ?
हमको आश्वासन पर आश्वासन ही,
आखिर हमसे ही क्यों यह धोखा है ?
वे तो हमें कभी कुछ देंगे ही नहीं,
न ही तो उनसे हमारी आशा थी।
तुमने अपना होकर यह सिला दिया,
अब तो हद पार हो गई है निराशा की।