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हिंदी के विश्वदूत डॉ. सुभाष शर्मा

डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
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राष्ट्र का अभिप्राय केवल एक भूमि का हिस्सा नहीं होता। राष्ट्र बनता है उस भू-भाग पर रहने वाले लोगों द्वारा हजारों वर्षों से संचित ज्ञान-विज्ञान, धर्म-संस्कृति और जीवन-शैली से। इनके बिना राष्ट्रीय एकता को बनाए रखना संभव नहीं। किसी राष्ट्र के ज्ञान-विज्ञान,धर्म-संस्कृति और जीवन-शैली आदि को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक विकास करते हुए आगे ले जाने का कार्य करती हैं हमारी भाषाएँ। भाषा गई तो कुछ न बचेगा। यदि नदी सूख जाए तो उसमें रहने वाले जीव कैसे बचेंगे, यही बात भाषा के साथ भी है,लेकिन कितने लोग हैं जो इस बात को समझते हैं। स्वतंत्रता के पश्चात तो हम ही आत्मघाती बनकर राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी सहित अपनी सभी भाषाओं को गिराते और अंग्रेजी को ही आगे बढ़ाते रहे हैं। हिंदी सेवा के नाम पर भी लोग स्वार्थ-सिद्धि में ही लगे दिखते हैं,लेकिन एक व्यक्ति ऐसा भी है जो विदेश में है। व्यवसाय की दृष्टि से उसका हिंदी से कोई संबंध नहीं। आईआईटी में प्राध्यापक रहे और फिर विश्व के अनेक संपन्न देशों के शिक्षण संस्थानों में रहे। वर्तमान में बहुत बड़े अभियंता होने के साथ सी.क्यू. विश्वविद्यालय (ऑस्ट्रेलिया) में’ ‘ऐसेट एवं अनुरक्षण प्रबंधन विभाग’ के विभागाध्यक्ष हैं,लेकिन उनके सीने में हर समय भारत धड़कता है। वे वहाँ रहकर भी एक सैनिक की भाँति हिंदी व भारतीय भाषा की ध्वजा थामे हुए हैं। वे वहाँ नियमित साहित्य-संध्या का आयोजन करते हैं और वे मेलबर्न(ऑस्ट्रेलिया) स्थित ‘हिंदी शिक्षा संघ’ के अध्यक्ष भी हैं।
जब उनसे पहली बार बात हुई,तभी समझ में आ गया था कि वे सरल-सहज व्यक्ति औरों से बहुत अलग हैं। भारत और भारतीयता के जज़्बे से भरपूर इनका व्यक्तित्व और कार्य अनुकरणीय है। तब मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे अपनी जीवन-यात्रा और हिंदी-समर्पण यात्रा को हमसे साझा करें। व्यस्तता के कारण कुछ समय तो उन्होंने आनाकानी की लेकिन अंतत: मेरे अनुरोध को स्वीकार करके जो भी लिखा है,वह आँखें खोलने वाला है,अनुकरणीय है। आइए पढ़िए उन्हीं के शब्दों में-
मेरा जन्म जलालाबाद(कन्नौज जिले) में हुआ। गाँव के विद्यालय में पढ़ा। १३ साल की अवस्था में पढ़ाई के लिए गाँव छोड़ शहर-शहर घूमता रहा। कभी कानपुर, कभी अलीगढ़, कभी पंतनगर,कभी जोधपुर तो कभी आई.आई.टी. दिल्ली में घूमता रहा,पर हिंदी से अधिक के अस्तित्व को लेकर लगाव की ललक बनी रही। हिंदी के लिए संघर्ष तो लड़कपन में ही शुरू हो गया था। १९६७-६८ में हिंदी का अभियान चला और यह आग पूरे उत्तर भारत में भी फैली। मैं ११वीं में पढ़ता था और मैंने भी स्कूल में प्रार्थना के समय नारा लगा दिया ‘हिंदी भाषा की जय’ यद्यपि मेरे साथ बहुत से विद्यार्थियों ने जयघोष किया,पर सजा मुझे मिली और कक्षा से निकाल दिया गया। मैं अपनी बहन के पास रह कर पढ़ता था। मेरे सभी साथी जब इकट्ठे हुए तो मैंने उनसे कहा कि मद्रास में लोग हिंदी को हटाने के लिए आत्मदाह कर रहे हैं। हमें भी हिंदी के लिए कुछ करना चाहिए। मेरी बात से उत्तेजित होकर शाला के अन्य छात्र बाहर निकल आए और उन्होंने विद्यालय के ठीक सामने एक पेट्रोल-स्टेशन, जिसके बोर्ड पर अंग्रेजी में लिखा था-जगन्नाथ द्वार,उस बोर्ड को तोड़ दिया और काला पोत दिया। उसके मालिक ने मुझे पहचान लिया कि मैं नेतागीरी कर रहा हूँ। फिर शाम को मेरी घर पर खिंचाई हुई,पर शहर में आग लगी थी अधिकतर विद्यालय-महाविद्यालय बंद थे। जो नहीं थे वह डी एस कालेज के अध्यक्ष ओमप्रकाश गौतम बंद करवा रहे थे। हम भी उनके साथ हो लिए। कभी हम भी उनके पीछे-पीछे उन्हीं के जैसे भाषण देकर इस काम में हाथ बंटा रहे थे। क्रमिक भूख हड़ताल का आयोजन हुआ और मैं भी बैठ गया। मेरी बहन भी साहित्य प्रेमी है,अतः उन्होंने मेरा पूरा साथ दिया। मैंने उस साल अंग्रेजी की परीक्षा का बहिष्कार किया और मन में एक ही सवाल गूंजता रहा कि जिस देश में इतनी समृद्ध भाषाएँ हों वहाँ भारतीय भाषा पढ़ना पूरे देश में अनिवार्य हो वह तो ठीक है पर अंग्रेजी अनिवार्य क्यों होनी चाहिए ? जो अंग्रेजी भाषा मात्र ३ प्रतिशत लोग जानते हों उस भाषा में ९७ प्रतिशत लोगों का कार्य क्यों होना चाहिए ? हमारे प्रयासों का निष्कर्ष यह निकला कि सरकार ने निर्णय लिया कि अंग्रेजी १२ वीं कक्षा में अब अनिवार्य नहीं होगी।
मैंने विद्यालय के साँस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए कई नाटक लिखे, जिसमें एक गीत-नाटिका ‘मॉडर्न रामायण’ लिखी। इस नाटक में निर्णायक काका हाथरसी थे। उन्होंने हिंदी में लिखने के लिए मुझे विशेष रूप से प्रोत्साहित किया तथा अपने हाथों से पुरस्कार भी दिया। मुझे मेरे सहपाठी जीवन चौहान का साथ मिला, मैं और जीवन अक्सर वाद-विवाद प्रतियोगिता में एक दूसरे के विपक्ष में भाग लेते थे। मैंने कई बार शिवकुमार शास्त्री को सुना,साथ ही शॉल वाले प्रकाशवीर जी,अटल बिहारी वाजपेयी का भाषण बड़े निकट से सुना,पर राजनीति के खेल में हिंदी की आवाज दब गई।
मैं भी कभी पंतनगर,कभी जोधपुर यूनिवर्सिटी में पढ़ने गया। यद्यपि पंतनगर विश्वविद्यालय में छात्र अंग्रेजी में बात करते थे,पर मुझे जब तक मजबूरी न हो हिंदी में ही बात करना पसंद करता था। जोधपुर विश्वविद्यालय में अच्छा लगा,वहाँ सभी हिंदी में बात करते थे। यह ऐसा विश्वविद्यालय था जहाँ मुझे हिंदी में भाषण देने और अपने विचार स्वच्छंद रूप से रखने का मौक़ा मिलता था। उस समय राजस्थान के वर्तमान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने जोधपुर विश्वविद्यालय के अध्यक्ष पद के लिए और मैंने एम.बी.एम. इंजीनियरिंग कॉलेज के उपाध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा और एक-दूसरे को सहयोग दिया।
अभियांत्रिकी शिक्षा करते ही कुछ समय नौकरी की और फिर आई.आई.टी. में एम.टेक. करने चला गया। यहां पर १९७८-७९ में बिन्देश्वरी पाठक ने बीड़ा उठाया कि वह अपनी पीएच-.डी. थीसिस हिंदी में ही लिखेंगे। यह बात ऊपर तक पहुँचाने में मैंने उनका साथ दिया। अंत में आईआईटी दिल्ली में पहली हिंदी में लिखी थीसिस स्वीकार की गई। आई. आई. टी. में उस समय कुछ लोगों को सूझा क्यों न हिंदी कवि सम्मेलन भी इस वार्षिक उत्सव का एक हिस्सा बने। जब सम्मलेन आयोजित किया गया तब उसमें गोपालदास नीरज,गोपाल व्यास, अशोक चक्रधर,शैल चतुर्वेदी,हरिओम पवार, अशोक जेमिनी (पिता-पुत्र दोनों) तथा अन्य नामी कवि आने लगे। कवि सम्मलेन की लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि,घुसने के लिए लड़ाई-झगड़े शुरू हो गए। मन में हिंदी के प्रति फिर अनुराग जागृत रहा।
आई. आई. टी. में अंग्रेजी का बोलबाला था। मैं आई.आई.टी. फैकल्टी फोरम टीचर्स यूनियन का उपाध्यक्ष चुना गया। यद्यपि अंग्रेजी में आम भाषण देना पड़ता था,पर हमारे अध्यक्ष सहयोगी प्रो. सुधांशु दुबे,प्रीतम बाबू शर्मा,हम सब हिंदी के बहुत बड़े पक्षधर थे। हम आपस में रणनीति हिंदी में ही किया करते थे, क्योंकि मैंने हाँक रखा था कि मैं खेल एवं उड्ययन मंत्री अशोक गहलोत को जानता हूँ। जब अपनी टीचर्स यूनियन फैकल्टी फोरम का उद्घाटन कराने के लिए किसी बड़े आदमी को बुलाने की बात आई तो मित्र पीछे पड़ गए कि फिर तो गहलोत जी से ही उद्घाटन करवाओ। मेरे मन में धक-धक हो रही थी कि गहलोत जी ने अगर मुझे नहीं पहचाना तो सबके सामने किरकिरी हो जाएगी। पर उन्होंने सबको बुलाने की जगह पहले मुझे अकेले में बुलाया और बड़ी गर्मजोशी से मिले और छूटते ही कहा तुम मेरे साथ सिंहनोक बीकानेर में एनएसयूआई के कैम्प में नहीं आए थे। देख लिया मैंने क्या कहा था उस समय तुमसे,तुमने नहीं सुना। फिर बोले सुभाष मुझे तुम्हारी आई.आई.टी. के बारे में ज्यादा मालूम नहीं है। मुझे आई.आई.टी. में मत बुलाओ।
उस समय संजय गांधी का ज़माना था,मैंने सोचा क्यों न संजय गांधी से बात की जाए। मैंने तय समय के लिए फोन उठाया कि उनके सचिव से बात करूँ पर उधर से आवाज आयी संजय स्पीकिंग,मेरे पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। मैंने निश्चय किया कि पूरे आत्म-विश्वास के साथ मैं हिंदी में ही बात कर सकता हूँ। संजय जी ने भी पूरे विश्वास के साथ हिंदी में जबाब दिया- ‘सुभाष क्या तुम्हारे पास कोई यातायात का साधन है ? तुम मुझे अभी मिल सकते हो ?’ मैंने कहा,हाँ मेरे पास मोटरसाइकिल है। कई बाधाओं के बावजूद मैं उन तक पहुंचा। मैं अभी भी सोच रहा था कि संजय जी अंग्रेजी में बात करेंगे या हिंदी में ? मेरी हालत हिंदी-अंग्रेजी में पतली हो रही थी। उन्होंने कनखियों से मुझे देखा और खुद मेरे पास आकर इतनी जोर से हाथ मिलाया। संजय गांधी से मिलने के बाद मेरा हिंदी में बोलने का साहस बढ़ गया।
महीनों बाद मुझे नार्वे जाने का अवसर मिला और यहाँ लगभग ३ वर्ष तक रहा। फिर भान हुआ कि इस नॉर्वजियन को अंग्रेजी न आने पर हीन भाव नहीं है,फिर हम १ अरब आबादी वालों को हिंदी को अपनी पहचान बनाने में शर्म क्यों आती है ? वहाँ मुझे सांस्कृतिक कार्यक्रम हिंदी में करवाने का अवसर मिला। हिंदी का कार्यक्रम और भारतीय भोजन का नार्वे के लोगों ने आनंद लिया। नॉर्वेजियन समाज पर हिंदी में गीत लिखा,जब उसका अनुवाद नॉर्वेजियन में पर्दे पर दिखाया,तब लोगों ने इस हास्य गीत का खूब मजा लिया। हमारे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के मित्र प्रो. शंभूनाथ गुप्ता ने हारमोनियम पर साथ दिया और मैंने गीत गाया। यहाँ रह कर भी मस्तिष्क पर यह असर पड़ा कि सिर्फ ४० लाख आबादी वाला देश भी अपनी भाषा को अपनी पहचान मानता है और वे लोग हमारी भाषा को मान देते हैं,तब भारत में यह सब संभव क्यों नहीं?
आई.आई.टी. में मेरे प्रोफेसर जिनका मैं शिष्य था,उनकी गैरहाजिरी में मैं उनके घर पर रहने लग गया। मेरे एक मित्र थे प्रदीप तनेजा(पत्रकार),वे भी मेरे साथ कुछ दिन के लिए आकर रहने लग गए। एक दिन रात को १० बजे वे एक गोरे अमेरिकन जॉन को मेरे घर ले आए। मेरी उससे खूब बातें हुई। उसे भारत के बारे में जितना ज्ञान उतना किसी राजनेता क्या हमारे मित्र नरेंद्र तनेजा को भी नहीं था। मैंने कहा यार तनेजा,तू बिना बुलाए मेहमान को ले आया,अब बिस्तर तो हैं नहीं, जॉन कहाँ सोएगा। जॉन बोला,चिंता मत करो मेरे पास यह स्लीपिंग बैग है,मैं नीचे सो जाऊंगा। मैं भारत और अमेरिका के बारे में कृषि-शिक्षा तथा राजनीति पर देर रात तक बातें करता रहा। मैं बीच-बीच में तनेजा से अंग्रेजी में बात करता रहा था। तनेजा बोला यार तू जॉन से बात कर,मुझे तो नींद आ रही है। तब जॉन ने पूछा,तुम लोग आपस में अंग्रेजी में बातें क्यों करते हो ? अचानक मुझे कोई उत्तर न सूझा,मैंने कहा- ‘ताकि तुम्हें बुरा न लगे’। जॉन बोला, ‘मेरी चिंता क्यों करते हो,मुझे समझना होगा तो मैं तुमसे अंग्रेजी में पूछ लूँगा।’ मुझे जैसे बिजली का एक झटका-सा लगा। मुझे लगा जैसे कोई मुझे मेरी हिंदी के प्रति मेरा कर्तव्य समझा रहा है।’ चूंकि उसने हिंदी की बात की तो मेरा भी हौंसला बढ़ा। मैंने कहा, जॉन एक बात कहूँ, ‘कहो’, उसने जवाब दिया। मैंने कहा, ‘तुम्हारी शक्ल अमेरिका के राष्ट्रपति जे.एफ. केनेडी से काफी मिलती-जुलती है, ऐसा लगता जैसे तुम उनके रिश्तेदार हो।‘ उसने आँखों में आँखें डाल कर कहा- ‘वे मेरे पिता थे’। मैं चौंक गया,पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ। वह बोला मुझे नींद आ रही है। हम दोनों सो गए।सुबह लगभग ५ बजे आँख खुली तो देखा वह तैयार था,वह बोला मैं जा रहा हूँ,और वह निकल लिया। मैंने तनेजा को कहा,यार तूने मुझे बताया नहीं। वह बोला – क्योंकि मुझे सम्पादक ने कहा था कि इनके रहने का कहीं इंतजाम कर दो,पर बताना नहीं। यह बात मैंने तब तक किसी को नहीं बताई,जब तक जे.एफ. केनेडी जूनियर का १९९९ में एक विमान दुर्घटना में देहांत नहीं हुआ, क्योंकि तभी आई.आई.टी. का किस्सा ‘टाइम्स आफ इंडिया’ में छपा कि १९८३ में वे दिल्ली आई.आई.टी. में रुके। खैर,जो हुआ सो हुआ,उनकी हिंदी की सीख मेरे दिमाग में घर कर गई।
इसके बाद मुझे अमेरिका में अध्यापन के लिए जाना पड़ा। यूरोप में भारतीयों का बड़ा समाज है। मंदिर है,गुरुद्वारा है और हिंदी बोलने वालों की भरमार है। वहाँ भी मुझे एक हिंदी रेडियो होस्ट करने का अवसर मिला। जिस यूनिवर्सिटी में मैं पढ़ाता था,वह जर्मन लोगों का गढ़ थी। कुछ स्पेनिश लोग भी थे जो अपनी भाषा पर गुमान करते थे। हमारे अध्यक्ष कहते थे, ‘मुझे एक बात समझ नहीं आती कि जब तुम भारतीय आपस में बात करते हो तो अंग्रेजी में,लेकिन जब पाकिस्तानी से बात करते हो तब अपनी ज़बान में ? तब मैं बड़ा असमंजस में पड़ जाता था,क्योंकि हमारी अपनी कोई राष्ट्रभाषा नहीं थी,जो हमें पहचान दिला सके। मन में बहुत विचार आते थे कि हिंदी के लिए कुछ किया जाए,पर कोई रास्ता नहीं सूझता था। एक बात जो वश में थी,प्रण लिया था कि घर पर बच्चों के साथ हिंदी ही बोलेंगे,भले ही पड़ोसी अध्यापक किसी राज्य के हों या बच्चे कितने ही अंग्रेजी विद्यालय में पढ़ें। लोग भले ही पिछड़ा कहें,क्या फर्क पड़ता है।
एक समय आया जब हम १९९६ में मेलबर्न में आ बसे। तभी मेरे ससुर और सास ऑस्ट्रेलिया आए,और उन्होंने मनोरंजन के लिए हमें अपने लेख तथा कविता से जोड़ना शुरू कर दिया। मेरी सासू जी डिग्री कालेज की प्रधानाचार्य थीं और बड़ी साहित्यिक थीं। उनकी एक पुस्तक ‘संवेदना की सिहरन’ पढ़ कर मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनकी पुस्तकें पढ़ने में मेरी रुचि पैदा हुई। ससुर जी पुरातत्व विभाग के अफसर थे। मैंने उनकी एक कविता जो गांधी जी पर व्यंग्य थी,पढ़ी और उसमें कुछ परिवर्तन किए,उन्हें अच्छा लगा। मेरी सासू जी ने भी मुझे प्रोत्साहित किया कि मैं लिखना प्रारम्भ करूँ। यद्यपि मैं बचपन में जब-तब कविता लिख लेता था,पर शादी के बाद सब छूट गया,पर मेरे सास-ससुर ने फिर प्रोत्साहित किया और मैं कविताएँ लिखने लगा। मेलबर्न में तभी कुछ लोगों ने कविता-गोष्ठी का आयोजन किया और उसे ‘साहित्य-संध्या’ का नाम दिया। मैंने लोगों की कविता सुनी और अपनी सुनाई। लोगों को आनंद आया। फिर मैंने नियमित रूप से जाना प्रारम्भ कर दिया।
मैंने वहाँ भी रेडियो के माध्यम से अपनी कविता लोगों को नियमित रूप से सुनानी शरू कर दी। इसी बीच फिज़ी में तखता पलट हो गया,जिसके लिए मैंने एक कविता लिखी ‘फिजी के इन हरे-भरे खेतों में आग लगाई है, कौन है वह गद्दार कि जिसकी देखो शामत आयी है।’ यह कविता मैंने फिजी रेडियो पर सुनाई। एक दिन जब मैं कार में जा रहा था तब रेडियो पर अचानक मुझे मेरी ही आवाज में यह कविता फिर सुनाई दी। मैंने सोचा रेडियो से भाषा का प्रचार संभव है। अतः मैं नियमित रूप से हिंदी के कार्यक्रम देने लगा। मैंने व्यंग्य कविताएँ लिखीं, जो लोगों को पसंद आयीं और लोग सुनाने की फरमाइश करने लगे। तब मैंने साहित्य-संध्या को ब्रिस्बेन में शुरू कर दिया और समय-समय पर गोष्ठियां आयोजित करने लगा। रेडियो पर भी बहुत से कार्यक्रम किए।
अब साहित्य-संध्या में मात्र भाग ही नहीं लेता था,बल्कि संयोजन भी करने लगा। हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए भी उत्साह बढ़ा। २००५ में मैंने एक बड़ा हिंदी दिवस आयोजित किया। संयोजकों का कहना था, इतनी मेहनत मत करो १०-१५ से अधिक लोग नहीं आएँगे। मैंने उस समय में भारत से बैनर बनवाकर मंगवाए। मैंने परचून की दुकानों पर अकेले जा-जा कर पोस्टर चिपकाए। ट्रेन में मित्र बनाए,उन्हें साहित्य संध्या से जुड़ने के लिए निमंत्रण दिया।यद्यपि संयोजकों का कहना था कि यह आपकी संस्था है,पर जब मैं सहयोग की बात करता तब वे कहते यह सम्भव नहीं है,पर जब लगभग १२० लोग कविता सुनने आए तब सबको आश्चर्य हुआ।
जब संयोजकों ने देखा कि मैं संचालन भली-भांति कर रहा हूँ तब उन्होंने ऐलान कर दिया कि हम साहित्य-संध्या नहीं चला सकते। मैं उस समय बेरोजगार था। पत्नी के पैसे से साहित्य-सेवा नहीं करना चाहता था,पर इससे पहले कि पूछूँ कि क्या मैं उसे गोद ले सकता हूँ,उन्होंने साहित्य-संध्या को जमीन पर फेंक दिया। इससे पहले कि साहित्य-संध्या जमीन पर गिरे,मैंने दोनों हाथों से उसे थाम लिया। जब स्थान की बात आई कि साहित्य-संध्या कहाँ हो तो संयोजकों ने कहा अब तक हम पैसे खर्च करते रहे,आपको करना है। एक दिन एक स्थानीय नेता ने रास्ता सुझाया और हमें सस्ते में एक लाइब्रेरी में साहित्य-संध्या करने की अनुमति मिल गई। तब से निरंतर लाइब्रेरी में ही हर दूसरे महीने के तीसरे शनिवार को साहित्य संध्या होती है। इस अवसर पर धीरे-धीरे लोगों ने आना शुरू किया और टूटी-फूटी कविताएँ लिखनी शरू की। कुछ समय लोगों के लिखने का स्तर बढ़ गया। बाद में लोगों ने अपनी पुस्तकें प्रकाशित करनी प्रारम्भ कर दीं। अब तक इस मंच से एक दर्जन से अधिक कविता की पुस्तकों का विमोचन हो चुका है।
२००५ में विचार आया कि कम्यूनिटी टी.वी. चैनल का प्रयोग कर हिंदी का प्रचार-प्रसार किया जाए। जब मैंने कार्य में हाथ बढ़ाया तो मुझे निर्माण निर्देशक बना दिया गया। तब मैंने कई हिंदी कार्यक्रम जैसे ‘आपसे मिलिए’ बनाए और अनेक राजनेताओं तथा उच्च पदों पर बैठे भारतीयों का नियमित रूप से परिचय कराया,जिनमें उस समय के उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी का जीवन में पहला साक्षात्कार लिया। फिर कार्यक्रम के अंतर्गत नए प्रवासियों को हिंदी में सूचनाएँ देनी प्रारम्भ की,जो भारत से आए नए लोगों के लिए बहुत उपयोगी थी। ये कार्यक्रम भी बहुत लोकप्रिय हुए,पर यह कार्य बिना आर्थिक सहायता के संभव नहीं था। फिर एक नौकरी मिलने पर व्यस्तता के कारण इधर ध्यान नहीं दे सका और चैनल बंद हो गया।
२०२० में विचार आया कि ऑस्ट्रेलिया के हिंदी कवियों का एक काव्य-संग्रह प्रकाशित किया जाए और ११ कवियों का संग्रह (मैंने सहसंपादक की भूमिका निभाई)प्रकाशित हुआ। इसी बीच रेडियो के माध्यम से मेरी कविताएँ लोगों तक पहुंचीं तथा केनबरा और सिडनी के कवियों के साथ मिलकर समय-समय पर सम्मेलनों का आयोजन किया गया। २०१५ में भारतीय कोंसलावास से अनुरोध किया कि हिंदी दिवस मनाने की अनुमति मिल सके।चूंकि सरकार बदल चुकी थी,तो हमने धूमधाम से हिंदी दिवस मनाया तथा कोंसलाधीश ने खुल कर साथ दिया। तब से अब तक हिंदी दिवस तथा अंतर्राष्ट्रीय हिंदी दिवस दोनों कोसनालावास में हर वर्ष साहित्य संध्या की ओर से मनाए जाते हैं और लोग इसमें बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं। बच्चों के लिए लेख,कविता,सामान्य ज्ञान प्रतियोगिताएँ भी आयोजन का हिस्सा होती हैं। इसी समय विचार आया क्यों न एक बड़ा कवि-सम्मलेन मेलबर्न में किया जाए, जिसका नाम ‘एक शायराना शाम’ दिया गया। यह गतिविधि हर वर्ष आयोजित हो रही है। कविता और हिंदी के प्रचार-प्रसार में इस सम्मेलन का बहुत बड़ा योगदान रहा।अब साहित्य-संध्या काव्य-गोष्ठी हर माह होने लगी है। डॉ. दिनेश श्रीवास्तव ने एक मासिक-पत्र ‘हिंदी-पुष्प’ प्रकाशित करना आरंभ किया था,जिसमें प्रकाशन-मंडल के सदस्य के रूप में सेवा कर रहा हूँ। उनके देहांत के बाद हम लोग अधिक और भी परिश्रम कर पत्रिका निकाल रहे हैं। उत्तर प्रदेश के लोगों की एसोसिएशन के माध्यम से ‘देश का आँगन’ पत्रिका का विमोचन योगी आदित्यनाथ ने पिछले महीने ही किया है। हम लोग विचार करते हैं कि हिंदी किस तरह जन-जन तक पहुंचाई जाए। यहाँ ‘हिंदी निकेतन’ नामक संस्था है,जिसके सांस्कृतिक कार्यक्रम लोगों को परस्पर जोड़ते हैं,साथ ही हिंदी की परीक्षा में उत्तम अंक लाने वाले विद्यार्थियों को हर साल पुरस्कृत करते हैं। ‘साहित्य-संध्या’ कविता-सम्भाषण के रूप में पूरा सहयोग करती है।
ऑस्ट्रेलिया में पहले हिंदी ५ विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती थी, अब मात्र २ जगह ही उच्च स्तर पर पढ़ाई जाती है। यहाँ विद्यालय के स्तर की हिंदी राज्य की एक संस्था ‘विक्टोरियन स्कूल आफ लैंगुएजेज़’ है, उसके अंतर्गत १४ केंद्र हैं,जहाँ शनिवार को कक्षाएं लगती हैं। यह कोर्स आजकल नर्सरी से लेकर १२वीं कक्षा तक के लिए हैं। हिंदी या अन्य देश की भाषाएँ सीखने वाले विद्यार्थियों को प्रोत्साहन और अंक भी अधिक मिलते हैं। यह एक प्रमुख कारण है कि अभिवावक हिंदी विषय दिलवाते हैं,वरना हिंदी में बहुत ही कम लोग होंगे,जो इसलिए सिखाना चाहते है कि हमारे बच्चे भारत से जुड़े रहें। यहाँ २ विद्यालय ऐसे हैं जहाँ हिंदी पाठ्यक्रम का हिस्सा है। वे है रेंज बैंक स्कूल क्रेनबर्न, जिसके प्राचार्य कॉलिन ऐवरी का कहना है कि हिंदी ऑस्ट्रेलिया की प्रमुख भाषाओं मे से एक भाषा होनी चाहिए। भारत से पर्यटन एवं व्यापार की जितनी सम्भावनाएँ हो सकती हैं,उतनी चीन से नहीं। उनके स्कूल में हर कमरे के बाहर हिंदी में पट्टियां लगी हैं। उनकी पट्टिका पर प्रधानाचार्य कार्यालय की वर्तनी मैंने ठीक की तो उन्हें बहुत अच्छा लगा और उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। यहाँ पहली से लेकर छठी कक्षा तक सबको हिंदी पढ़ना अनिवार्य है,वे विद्यार्थी भले ही किसी भी देश के क्यों न हों। पीएल-१२ नाम का एक दूसरा १२ वीं तक का विद्यालय है,जहाँ छठी से बारहवीं कक्षा तक हिंदी रोज पढ़ाई जाती है।एक संस्था और है हिंदी शिक्षा संघ (मैं अध्यक्ष), तथा हिंदी पढ़ाने वाले अध्यापकों से जुड़ा हूँ। संस्था हिंदी प्रचार-प्रसार के लिए यथायोग्य विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों के माध्यम से कार्य कर रही है। जब तक अधिक लोग हिंदी पढ़ेंगे या बोलेंगे नहीं,हिंदी में रोजगार के अवसर पैदा नहीं होंगे। हम हर माह कोई न कोई गतिविधि अन्य संस्थाओं के साथ मिल कर कर रहे हैं। हम विक्टोरिया सरकार के लिए कोविड में टीकाकरण को बढ़ावा देने के लिए नाट्य-कविता का आयोजन करने जा रहे हैं।ये सभी कार्य हिंदी में ही होंगे। यहाँ पर हम रेडियो पर हिंदी में कार्यक्रम करते हैं।
अक्सर आम आदमी की का प्रश्न होता है कि ऑस्ट्रलिया में हिंदी का क्या औचित्य है ? आवश्यक है कि उन लोगों से बात की जाए जो कहते हैं,हम हिंदी क्यों पढ़ें ? जब भारत में लोग अंग्रेजी के पीछे भाग रहे हैं तो ऑस्ट्रेलिया में हिंदी सिखाने का क्या औचित्य है। यह बड़ा कुतार्किक प्रश्न है,पर हिंदी बोलने वाले भावुक हो जाते हैं और आपस में ही कहते हैं यदि पाकिस्तान उर्दू लागू कर सकता है,यदि टर्की में कमाल पाशा कर सकते हैं, तो फिर भारत में क्यों नहीं ? ये लोग हिंदी का गुणगान करते हैं,पर जब दक्षिण के लोगों या अन्य भाषायी लोगों से बात करते हैं,तब बोली विवाद में नहीं पड़ना चाहते,जबकि आवश्यकता है खुले मन से चर्चा करने की,ताकि हम उनकी बात समझ सकें और वे हमारी बात।
मेरे अपने हिंदी के बारे में विचार यह हैं कि लोगों को समझाया जाए कि एक समृद्ध राष्ट्र के लिए उसकी अपनी भाषा होना आवश्यक है। यदि ऐसा न होता तो यू.एन. में ६ भाषाओं की जगह एक भाषा से काम चल जाता। जिस तरह यू.एन. में ६ भाषाएँ हैं, भारत में उसी तरह से २२ भाषाएँ हैं और सभी का बराबर का दर्जा है,पर सब भाषाएँ सब लोगों के लिए बोलना संभव नहीं है। यदि हम सब यह मान लें कि,भाषा राष्ट्र की पहचान होती है तभी दूसरा प्रश्न पूछा जा सकता है कि कौ-सी भाषा राष्ट्रभाषा बनाई जाए,जो कम से कम समय में अधिक से अधिक लोगों को सिखाई जा सके। हिंदी भाषियों का यह कहना कि हिंदी सरल है, मधुर है,यह सब अनर्गल बातें हैं। सबसे सरल और सबसे सुंदर भाषा वह है जो आपने अपनी माँ के मुंह से सुनी हो। जिसे अपनी माता पर गर्व नहीं,वह भारत माता पर क्या गर्व करेगा? वह रोजी-रोटी के चक्कर में आँखों पर पट्टी बाँध कर कोल्हू के बैल जैसा पैसे कमाएगा और जब उसके ही सामने उसकी आने वाली पीढ़ी अपने त्योहारों से आँख चुराएगी,तब वह देखेगा कि ऑस्ट्रेलिया जैसे बहुसांस्कृतिक देश में जहां चीनी,अरबी स्पेनिश ग्रीक सब अपनी भाषाएँ बोल सकते हैं,अपने त्यौहार मना सकते हैं तब हम क्रिसमस मना कर स्वयं को परिवर्तित हिन्दू कहलाना उचित समझेंगे या हिन्दू ? यह देश सभी को यह मौक़ा देता है, लोग इस बहुसांस्कृतिक देश में अपनी संस्कृति के अच्छे उदाहरण पेश कर देश की संस्कृति को ऊंचा उठाएँ और अच्छा बनाएँ। जब आने वाली पीढ़ियाँ आपको कोसेंगी, तब आप होंगे ही नहीं,पर वह कोसेंगी अवश्य। यह बात तो है कि,उन्हें अंग्रेजी बोल कर कोई अंग्रेज मानने को तैयार नहीं होगा। और कुछ ऐसी स्थिति होगी जैसे-धोबी का कुत्ता,घर का न घाट का। ‘एक भाषा गाँव की,एक अपने देश की। एक भाषा संस्कृति की,एक भाषा अपने पेट की।’
आज ऑस्ट्रेलिया में हिंदी संपर्क भाषा के रूप में अपनाए जाने का कारण यह है कि वे दिन चले गए,जब कुछ ही लोग विदेश में छात्रवृत्ति पर पढ़ने जाते थे। आज लोग छोटे काम करने के लिए भी आते हैं। यह आवश्यक नहीं कि उनकी अंग्रेजी अच्छी हो, और हो भी तो उन्हें अपने ही देश के अनेक लोग देख कर अपनी भाषा में बोलने को जी करता है,जो अंग्रेजी के अलावा कोई भी हो।और तब मुझे दुबई का किस्सा याद आता है, जहाँ पहली बार जाने से पहले मैं सोचता था, वहाँ के लोग किस भाषा को समझते होंगे, जो बोली जाए। जब वहाँ पूछा “वेयर कैन आई गेट अबू धाबी बस” तो सामने खड़े लडके ने कहा,साहब सामने तो खड़ी है।पठान से पूछा बाजार का नाम,बंगाली से पूछी सोने की दुकान और अरब से पूछा बुर्ज खलीफा। मैंने अंग्रेजी में पूछा,जबाब हिन्दुस्तानी में मिला ‘सर,बस ले लो’, ‘सर आगे गली से बाएं मुड़ जाना’ और अरब ने कहा ‘बुर्ज खलीफा सीधे-सीधे’। वही हाल एक दिन ऑस्ट्रेलिया का भी होगा,मेरा ऐसा विश्वास है,पर यह संभव तभी होगा जब अधिक से लोग हिंदी बोलें और धीरे-धीरे लिखना-पढ़ना भी शुरू करें। आज भी अस्पतालों में अनुवादक मिलते हैं। फोन पर अनुवादक मिलते हैं। सरकारी आवश्यक सूचनाएँ हिंदी में भी अनुदित होती हैं पर अफ़सोस कि हम जैसे कुछ हिन्दी के लोगों को दर्द अधिक होता है जो सरकार का ध्यान दिलाते हैं कि हिंदी का अनुवाद भी होना चाहिए। फिर भी हिंदी पढ़ने वाले हिंदी की जगह अंग्रेजी में पढ़ने और लिखने में विश्वास रखते हैं,जब तक उनके माँ बाप को अकेले अस्पताल न जाना पड़े,जिन्हें अंग्रेजी न आती हो और उन्हे नौकरी से छुट्टी न मिले।
प्रश्न है कि हिंदी को बढ़ावा कैसे मिले ?लगभग जितने लोग पंजाबी बोलते हैं और सरकारी आंकड़ों के हिसाब से उतने सब मिलाकर घर पर हिंदी बोलते हैं,और जो बोलते हैं,उनमे से भी अधिकतर आंकड़ों में हिंदी लिखना अपमान और अंग्रेजी लिखने में गौरवान्वित अनुभव करते हैं। सोचिए जहाँ आत्मा बिकी हुई हो तो उसे जगाने का काम कितना मुश्किल होगा। सोते हुए को जगाया जा सकता है,जागते हुए को और कैसे जगाया जाए,पर जहाँ तक आंकड़ों की बात है,यहाँ जनगणना हर ५ साल में होती है और हम लोगों ने अनुभव किया कि आवेदन में घर पर बोलने वाली एक ही भाषा लिखी जा सकती है। तब कोई सच क्यों न लिखे कि वह घर पर मराठी,गुजराती,तमिल,तेलगू,बंगाली इत्यादि बोलता है। अब इस स्थिति में यह कहना कि पंजाबी कोई हिंदी नहीं लिख रहा है,मराठी भी हिंदी भाषा आवेदन पर नहीं लिख रहे हैं। यह कह कर हम आपस में बैर बढ़ाने का काम कर रहे हैं। उनके हिसाब से हिंदी में ऐसे क्या सुर्खाब के पर लगे हैं जो उनकी अपनी भाषा में नहीं। बात समझने की यह है कि यदि गुजराती चाहें कि उन्हें राष्ट्रभाषा का दर्जा मिल जाए,वह संभव नहीं है। स्वयं महात्मा गांधी जिनकी मातृभाषा गुजराती थी और जिन्होंने अपनी जीवनी गुजराती में लिखी,वे भी इसके पक्षधर नहीं थे,पर यदि सब हिंदी लिखें तब यह संभव है कि हिंदी को राष्ट्रीय दर्जा मिल जाए। अब प्रश्न यह कि यह संभव कैसे हो ? हम लोगों ने इस पर विचार किया और निष्कर्ष निकाला कि हमें सरकार से अनुरोध करना चाहिए कि आवेदन पर हमें २ भाषाएँ लिखने का प्रावधान हो,जो सत्य है। अधिकतर क्षेत्रीय भाषा बोलने वाले लोग हिंदी भी बोलते हैं।ऐसी स्थिति में हम-एक दूसरे का हाथ पकड़ कर आगे बढ़ें। एक को पीछे धकेल कर नहीं।यही उपाय हमें ऑस्ट्रेलिया में ही नहीं,भारत में भी अपनाना चाहिए। ऑस्ट्रेलिया में यदि हिंदी भारतीयों की पहचान होगी तो हम सब मिलकर अन्य भाषाओं के लिए भी लड़ सकते हैं,वरना किसी एक भाषा को छोटा समझ कर सरकार कभी भाव नहीं देगी। प्रयास सच्चे मन से होना चाहिए कि हिंदी-भाषी जिम्मेदारी लें कि हिंदी के साथ अन्य क्षेत्रीय भाषाएँ भी प्रगति करें। हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए प्रेम का रास्ता भाषा सिखाने के लिए सबसे सरल होता है।
भाषा की शुद्धता तथा अन्य भाषा के शब्दों का परहेज इन पर हिंदी भाषी आपस में सख्ती से निपटें,हिंदी के ठेकेदार इस हद तक न बढ़ें कि जब तक आप शुद्ध नहीं बोलोगे, अंदर नहीं घुसने देंगे। इस डर से अंदर तो दूर रहा,लोग हिंदी की चौखट तक भी नहीं आएँगे। आज अंग्रेजी बोलने वाले क्या आप सोचते हैं कि सब शेक्सपियर की भाषा बोलते या समझते हैं ? अतः पहले हिंदी बोलना सिखाओ, चाहे हिंग्लिश ही सही,पर जब कक्षा में जाओ तब शुद्ध हिंदी सीखो,पर सोशल मीडिया पर हिंदी का अभियान चलते रहना चाहिए। मैं चाहता हूँ भाषाओं को पास लाया जाए। नाटक,फ़िल्में पोस्टर,विज्ञापन हिंदी-मिश्रित भाषा में बनें। भले ही भाषा थोड़ी गलत बोली जाए,पर लिखी न जाए, यह प्रयास होना चाहिए। इसके लिए पुरस्कार मिलना चाहिए,दंड देना आवश्यक नहीं। हिंदी सोशल मीडिया पर भले ही गलत लिखी जाए पर साहित्य में नहीं। हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए आवश्यक है कि हम हिंदीतर भाषियों की बातों को समझें, राजनीति के दांव-पेंच का जबाब ढूंढ़ें,सिर्फ गाल न बजाएँ,कुछ करें। पुरस्कार के चक्कर में ही न रहें, चुपचाप भी,बिना पैसे,बिना यश और बिना तमगे के भी सेवा के लिए तैयार रहें।
मेरे विचार से यदि हिंदी को आगे बढ़ाना है तो हम सबको अपने अपने हिस्से का बोझा उठाना पड़ेगा।चाहे वे शिक्षक हों,विद्यार्थी हो,अभिभावक हों, कलाकार हों या आम आदमी। यह कार्य नौकरशाह नहीं कर सकते। यह आम हिंदी-भाषी को राष्ट्र का एक सिपाही बन कर करना पड़ेगा।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुम्बई)

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