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जीवन-गाड़ी के दो पहिए ‘नर-नारी’

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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नर-नारी का अनन्याश्रित संबंध हैl दोनों जन्म से भले अलग ईकाई हैं,पर विवाह से जीवन में मिलकर वे एक ईकाई बन जाते हैंl एक-दूसरे के बिना वे अधूरे हैं। कोई लड़की,लड़के के साथ मिल जाती है,तभी वह नारी कहलाती है। शादी के बाद ही यह होता है पर,शादी के साथ लड़की नये कुल में चली जाती है और अपने पितृकुल से छूट जाती है, जैसे कोई ककड़ी पकने पर (रसपूर्ण हो जाने पर) स्वत: ही अपनी बेल से अलग हो जाती है।
अर्यमनं यजामहे सुबन्धुँ पतिवेदनम्। उर्वारुकमिव बन्धनात् प्रेतो मुञ्चामिनामुत:ll
(अथर्व:० १४-१-१७)
अर्थात्, ‘पति देने वाले,सुबन्धुयुक्त रखने वाले अर्यमा देव का करते हैं हम यजन;
ककड़ी जैसे लता से होती स्वत: मुक्त बंधन,
वैसे पितृकुल से छूटुँ मैं,पति से होते संबंधन!’
शादी के बाद पति के कुल,सम्पत्ति पर पत्नी का समान अधिकार हो जाता है और इसी लिए विवाहिता लड़की अपने माता-पिता की संपत्ति में अपना दावा नहीं करती,यद्यपि कानून द्वारा उसे यह अधिकार मिला हुआ है।
वैसे,विवाह सृष्टि के नियम में मानव-जाति के लिए आवश्यक है। जीवन और मरण प्रकृति का शाश्वत नियम है। मरण के कारण ही जीव की क्षति की पूर्ति करते रहने के लिए सृष्टि की प्रक्रिया चलनी परमावश्यक है। मनुष्य मात्र में सृष्टि की यह प्रक्रिया नियोजित रूप में चलती रहती है,वैसे यह कभी अनियोजित रूप से भी चल जाती है। हमारे पूर्वजों ने इसीलिए विवाह की एक संस्था कायम की है, ताकि स्त्री-पुरुष दोनों मिलकर सृष्टि भी करते रहें। हमारे मनस्वियों ने सृष्टि-क्रिया के गूढ़ रहस्यों को अनादिकाल से खोलकर हमारे सामने रख दिया है। स्त्री-पुरुष के समागम से जो शारिरिक क्रिया होती है,उसी से सृष्टि का सूत्रपात होता है। वैज्ञानिक तथ्य भी है कि जब पुरुष और स्त्री मिलकर समागम करते हैं तो दोनों के कोषाणुओं के मिलन से सृष्टि की शुरुआत हो जाती है।
आज शिक्षा का प्रभाव बहुत बढ़ गया है। लड़के और लड़कियाँ दोनों शिक्षा में आगे हैं और जीविकोपार्जन में भी बराबरी की भागीदारी अर्जित करती हैं। दोनों समान रूप से अपने पैरों पर खड़े हो रहे हैं और जीवन-यापन के लिए लड़कियों को भी विवाहोपरान्त लड़के पर आश्रित रहने की अनिवार्यता नहीं रहती है,फिर भी दोनों विवाह कर एकसाथ रहने की बाध्यता और खुशी महसूस करते हैं। क्यों दोनों विवाह-बंधन में बँधने को लालायित रहते हैं ? स्पष्ट है कि दोनों की बलवती इचछा रहती है कि दोनों का अपना प्रतिरूप हो,जिसे वह अपना कह सकें और सृष्टि की गाड़ी आगे बढ़ेl यही कारण है की नर-नारी दोनों अपने पैर पर खड़े रहने के वाबजूद साथ-साथ जीवन जीने में अपना अहोभाग्य मानते हैंl वैदिक युग से भी वर-कन्या का शिक्षित होना आवश्यक माना गया है।
‘ब्रहमचर्य्येण कन्या३ युवानं विन्दते पतिम्।’
(अथर्व० ३/५/१८)
अर्थात्, ‘जैसे कुमार ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्या और सुशिक्षा प्राप्त करके अपने अनुकूल विदुषी युवती से विवाह करते हैं,वैसे ही सुशिक्षिता कुमारी भी ब्रह्मचर्य सेवन कर अपने अनुकूल कुमार से विवाह करे।’
शादी करने के समय वर-कन्या दोनों एक-दूसरे को वचन देते हैं-
‘ओं गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथास:।
भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यंत्वादुर्गार्हपत्याय देवा:॥’
अर्थात्,
‘हे वरानने! जैसे मैं ऐश्वर्य,सुसन्तानादि सौभाग्य की बढ़ती के लिए तेरे हाथ को ग्रहण करता हूँ,तू मुझ पति के साथ जरावस्था को प्राप्त सुखपूर्वक हो,तथा हे वीर! मैं सौभाग्य की वृद्धि के लिए आपके हस्त को ग्रहण करती हूँ। आप मुझ पत्नी के साथ वृद्धावस्था पर्यन्त प्रसन्न और अनुकूल रहिये। आपको मैं और मुझको आप आज से पति-पत्नी भाव से प्राप्त हुए हैं। सकल ऐश्वर्ययुक्त न्यायकारी सब जगत् की उत्पत्ति का कर्ता बहुत प्रकार के जगत् का धर्ता परमात्मा और ये सब सभामण्डप में बैठे हुए विद्वान् लोग गृहाश्रमकर्म के अनुष्ठान के लिए तुझको मुझे देते हैं। आज से मैं आपके हस्ते और आप मेरे हाथ बिक चुके हैं,कभी एक-दूसरे अप्रिय आचरण न करेंगे।’
जैसे कहा गया है कि,नर से ही नारी शब्द बना है। नारी का प्रधान रूप पत्नी का है। पति-पत्नी मिलकर घर बनाते हैं,पर पत्नी ही वस्तुतः घर है। कहा भी गया है-घरनी से घर है।
‘न गृहं गृह मित्याहु: गृहिणी गृह मुच्यते।’ (महाभारत १२.१४५.१)
अर्थात्,घर मकान का नहीं,घर की स्वामिनी का नाम घर है।
हमारी संस्कृति में एक प्रमुख शब्द ‘दम्पति’ है,जो पति-पत्नी दोनों के लिए आता है। दम्पति का अर्थ ही घर का स्वामी है। अत: यह सहज लक्षित हो जाता है कि पती-पत्नी दोनों का गार्हस्थ जीवन में समान दायित्व एवं स्थान है, पर नारी का मोल किसी तरह कम नहीं है;क्योंकि नारी केवल गृहिणी ही नहीं, वह घर में एक महारानी है।
‘सम्राज्ञी श्वसुरे भव सम्राज्ञी श्वश्र्वां भव।
ननान्दरि सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अधि देवृषु॥( ऋक्वेद १०.८५.४६)
अर्थात्,नारी या पत्नी अपने पति की ही दृष्टि में ही नहीं,वरन् अपने सास-ससुर,देवर,ननद सबकी दृष्टि में एक सम्राज्ञी,अर्थात्,महारानी है।
पाणिग्रहण के समय पति पत्नी को विश्वास दिलाता है कि वह उसके साथ पूर्ण गृहस्थ-जीवन में सुख-सुविधा को प्राप्त करते हुए पूर्ण आनद और सम्मान के साथ गृह-स्वामिनी होकर रहेगी। दोनों ऐसे जीवन मेंं रहेंगे कि,एक-दूसरे की आयु का अपहरण न करें।
एक आयुर्विज्ञान विशेषज्ञ के अनुसार भले पति-पत्नी की उम्र में अधिक फर्क हो,पर दोनों एक-साथ ही बूढ़े होते हैं।
नारी संपूर्ण समाज से यह मंगलकामना और आशीर्वाद प्राप्त करती है कि वह पति गृह में विशेष शोभा प्राप्त करे। समाज उसे यशोमयी ,कर्मशीला,सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् का आदर्श रूप मानता है। नारी दीन-हीन नहीं गृहस्थ-जीवन की पताका है। वह गृहस्थाश्रम रूपी शरीर की आत्मा है और शत्रुओं से लोहा लेने वाली वीरांगना।
भारतीय संस्कृति में नारी को उच्चतम और आदर्श स्थान दिया गया है। हमारी संस्कृति में नर (या वर) अपने को पति-रक्षक,दाता कहता है,और नारी (वधू) अपने को पत्नी-संरक्षिका तथा पोषिका कहती है।
नारी का नाम-स्त्री,महिला,सुन्दरी,प्रमदा, मानिनी,वनिता,अबला,ललना,मेना,जया, दिव्या,वामा भी है। उक्त नामों से ही स्पष्ट हो जाता है कि नारी नर की सहगामिनी है। जो इस तरह की नहीं है,वह अपवाद-स्वरूप ही है। जीवन-मरण में वह सदा नर के साथ रहती है,जब तक पुरुष जाया को प्राप्त नहीं करता,वह अपूर्ण है।
यह सर्वविदित है कि नर और नारी मिलकर ही सृजन की ईकाई बनती है। नर अगर जनक है,तो नारी जननी। यह भारत तथा अन्यत्र भी प्रचलित है पर,भारत में इसकी पवित्रता जैसी है,वह अन्यत्र कम दिखाई पड़ती है। पाश्चात्य सभ्यता में स्त्री का नाम केवल ‘वुमेन’ है और पत्नी के लिए ‘वाईफ’ शब्द का बोध किसी विशेष अर्थ में नहीं आता, जैसा भारतीय साहित्य में है। विदेशों में पत्नी जीवनयोग्या है,पर पूज्या नहीं।
हमारी संस्कृति में पत्नी (नारी) के लिए अर्द्धांगिनी शब्द आया है,जो इंगित करता है कि घर के सारे कार्यों की उसकी बराबर की भागीदारी है। अत: घर का सारा वातावरण उसकी बुद्धिमत्ता,कार्यदक्षता और कार्य कुशलता पर निर्भर करता है। अत: नर-नारी को मिलाकर ही घर का साम्राज्य चलता है। धर्म-कर्म में,पूजा पाठ में,घर के किसी यज्ञ में नर-नारी की सहभागिता रहती है।
नर-नारी की शुचिता में जहाँ कमी होती है ,वहाँ विनाश का ही साम्राज्य कायम हो जाता है। बिना विवाह के साथ-साथ रहने की हाल की घटनाओं से हम परिचित हो चुके हैं,जहाँ मौत ने ही अपना राज चला दिया है। अतः, नर-नारी का आंतरिक शाश्वत संबंध होना आवश्यक है,तभी नर नारी पर और नारी नर पर जीवनानुरूप संबंध बना कर जीवन निर्वाह कर सकते हैं और पावन सृष्टि समाज को दे सकते हैं और जीवन-गाड़ी के दो पहिए बन कर अपने जीवन को चला सकते हैं।

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

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