डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली)
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कर्नाटक के उच्च न्यायालय में हिजाब के मुद्दे पर अभी बहस जारी है लेकिन अंतरराष्ट्रीय इस्लामी सहयोग संगठन ने भारत के खिलाफ अपना बयान जारी कर दिया है। उसने पहले धारा ३७० हटाने के विरोध में भी बयान जारी किया था। पाकिस्तान के मुल्ला-मौलवी और नेता भी एकतरफा बयान जारी करने में एक-दूसरे से आगे निकल रहे हैं। अदालत में हिजाब का पक्ष रखने वाले वकील हिंदू हैं और वे जो तर्क दे रहे हैं,वे ऐसे हैं,जिन पर खुले दिमाग से विचार किया जाना चाहिए। उनका तर्क यह है कि जब हिंदू औरत के सिंदूर,बिंदी और चूड़ियों,सिखों की दाढ़ी-मूंछ और पगड़ी तथा ईसाइयों के क्राॅस पहनने पर कोई प्रतिबंध नहीं है तो मुस्लिम महिलाओं के बुर्के और हिजाब पर प्रतिबंध की क्या तुक है ? क्या ऐसा करना पूर्णतः सांप्रदायिक कदम नहीं है ? क्या यह इस्लाम और मुसलमानों पर सीधा आक्रमण नहीं है? हिजाब के बहाने यह मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा से वंचित करने का कुप्रयास नहीं है ? कर्नाटक में हिजाब के सवाल ने जैसा सांप्रदायिक और राजनीतिक रुप धारण कर लिया है,यदि हम उससे ज़रा अलग हटकर सोचें तो यह मूलतः नर-नारी समता का सवाल है! यदि हिजाब धार्मिक चिन्ह है तो इसे औरतों के साथ-साथ मर्द भी क्यों नहीं पहनते ? आजकल औरत और मर्द-सभी मुखपट्टी पहनते हैं,वैसे ही वे हिजाब भी पहन सकते हैं। सिर्फ औरतें ही क्यों हिजाब पहनें ? उनका गुनाह क्या है ? और फिर मुस्लिम औरतों को ही यह सजा क्यों है ? हिंदू और ईसाई औरतें भी इसे क्यों नहीं पहनें ? हिजाब,बुर्का,घूंघट, सिंदूर,बिंदी,चूड़ी,भगवान दुपट्टा आदि इनमें से किसी भी चीज को पहनने का आदेश किसी ईश्वर, अल्लाह या अहुरमज्द का नहीं है। ये सब परंपराएं मुनष्यों की बनाई हुई हैं और ये देश-काल के मुताबिक चलती हैं। हिजाब और बुर्के का औचित्य डेढ़ हजार साल पुराने अरब देश में बिल्कुल ठीक था लेकिन आज की दुनिया में इसका कोई महत्व नहीं रह गया है। यदि हिजाब और बुर्का इस्लाम का अनिवार्य अंग है तो क्या बेनज़ीर भुट्टो,मरियम नवाज शरीफ,शेख हसीना,काबुल की शहजादियां मुसलमान नहीं हैं ? उन्हें कभी भी अपना चेहरा छिपाते नहीं देखा! शरीर के गुप्तांग औरत और मर्द सभी ढकें,यह तो जरुरी है लेकिन चेहरे को छिपाए रखने की पीछे तर्क क्या है ? चेहरा तो आपकी पहचान है। चेहरा तो वो ही छिपाता फिरता है,जो चोर या अपराधी हो। किसी तिलक,बिंदी,चोटी, जनेऊ,दाढ़ी-मूंछ,पगड़ी,दुपट्टा,तुर्की टोपी,शेरवानी, सलवार-कमीज,गतरा (अरब),चोंगा (ईसाई),किप्पा (यहूदी टोपी) आप पहनना चाहें तो जरुर पहनें। आप अपनी मजहबी या सांप्रदायिक या जातिय पहचान का दिखावा करना चाहते हैं तो जरुर करें, लेकिन कोई भी औरत या मर्द अपना मुँह क्यों छिपाए ? मुखपट्टी तो जैन मुनि भी लगाते हैं लेकिन उसका उद्देश्य अपना मुँह या पहचान छिपाना नहीं है बल्कि उनकी गर्म सांस से कोई जीव-हिंसा न हो जाए,उनका यह उद्देश्य रहता है। औरतों पर हिजाब, नकाब और बुर्का लादना तो उनकी हैसियत को नीचे गिराना है। मुस्लिम कन्याओं को छात्र-काल से ही हीनता-ग्रंथि से ग्रस्त कर देना कहां तक ठीक है ? मुस्लिम कन्याओं का मनोबल भी उतना ही ऊंचा रहना चाहिए,जितना देश की अन्य लड़कियों का रहता है। क्या वे भी भारत माता की प्रिय बेटियां नहीं हैं ?
परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।