हरिहर सिंह चौहान
इन्दौर (मध्यप्रदेश )
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आदिशक्ति माँ दुर्गा (नवरात्रि विशेष)…
आदिशक्ति माँ दुर्गा की उपासना का महापर्व नवरात्रि पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है, जिसमें छोटी-छोटी बच्चियों के साथ सभी वर्ग के पुरुष, महिला, लड़कियाँ और युवा इस महारास गरबों की धूमधाम की जान होते हैं। ऐसे धार्मिक उत्सव में माता रानी की भक्ति में सनातन संस्कृति, परम्परा व विरासत के मिले-जुले सामाजिक ताने-बाने की गूँज डांडियों में रहती है। यह नवरात्रि पर्व भारतीय सभ्यता का प्रतीक भी है। धार्मिक समरसता के विभिन्न रंगों में भारतीय संस्कृति को आगे बढ़ने हेतु सही व सकारात्मक ऊर्जा के साथ संस्कारों की पैरवी नवरात्रि में आदिशक्ति की उपासना और शक्ति की आराधना का यह त्योहार जीवन को खुशहाल बनाने में सहयोग भी करता है, लेकिन इस पर्व की भक्ति के रंग में आज आधुनिकता का तड़का लग रहा है, जिससे फूहड़ता व दूषित संस्कृति के नजारे देखना-मिलना आम बात हो रही है। फिल्मी गानों व डीजे की धुन पर अब पारम्परिक गरबों में ‘३ ताली’ वाली गूँज गुमनाम हो चुकी है। भक्ति की वही पुरानी परम्परा साड़ी, चुनरी ओर राज्यों के अपने- अपने पारम्परिक पहनावे की संस्कृति का महत्व अपने-आपमें बहुत ही प्रभावी है, पर आज के दौर में यह सबके सब आधुनिकता के आगे नतमस्तक हो चुके हैं।
दूसरी ओर कपड़ों के नाम पर फूहड़ता का फैशन समाज में आखिर क्यों स्वीकारा जा रहा है ? युवा वर्ग को अगर समझाया जाता है तो वह इसमें ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के नाम पर विरोधी हो जाते हैं। वर्तमान में २ अलग-अलग विचारों की विभिन्नता फैल रही है, जिस पर चिंतन जरूरी है, क्योंकि एक तरफ दूषित मानसिकता व दूसरी ओर संस्कृति को बचाने हेतु सकारात्मक सोच यानी दोनों के लिए त्योहार मनाने के अलग- अलग मायने। आदिशक्ति माँ की ऐसी आराधना भक्ति किस काम की, जो हमारी संस्कृति व संस्कारों को दूषित कर रही हो।
अत्याधुनिक फैशन व संस्कृति ने हमें और युवा पीढ़ी को बहुत आधुनिक बना दिया है, जिसके कारण ही पर्व-त्योहार पर ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं, जिससे सभी को शर्मिंदा होना पड़ता है।
सबको समझना होगा कि माँ की आराधना परिवार, समाज और धर्म की एकता की प्रतीक है। इसे फूहड़पन व अश्लीलता का जामा पहना बहुत गलत है। गरबा नृत्य को महोत्सव के रुप में मनाया जाए तो बहुत अच्छा होगा। दोनों पहलू के इस चित्रण में अलग- अलग रंग देखने को मिल रहे हैं, पर भक्ति की पवित्रता मानो धूमिल होती जा रही है। अब गरबा ‘इवेंट’ यानी कार्यक्रम बनता जा रहा है । नैतिक शिक्षा व धर्मिक ग्रंथों की जो शिक्षा नृत्य-संगीत, सांस्कृतिक कार्यक्रम व नाटकों के माध्यम से बताई जाती थी, जो गरबे पूरे परिवार के साथ करते थे और मिल-जुल कर देखते थे, वह बात अब नहीं रही, क्योंकि आदिशक्ति की उपासना श्रेणी के हिसाब से गरबा पांडालों में दिखाई देने लगी है। बच्चे अलग, बुजुर्ग महिला अलग और युवक-युवती एकसाथ… ऐसे ही माहौल में गरबा पांडालों में आजकल आयोजन होते हैं। यह कहाँ जा रहे हैं हम ? सामाजिक जिम्मेदारी व उत्सव के प्रति हमारी यह उदासीनता बहुत दुखद है। इस विषय पर जनजागरण जरूरी है। नवरात्रि पर्व की इस उंमगता को आधुनिकता में धूमिल मत होने दो। इस पर्व की भक्ति की पवित्रता व आदिशक्ति की आराधना में आधुनिकता का तड़का मत लगाओ। भारतीय परम्परा के अनुसार शालीनता से मिल-जुलकर त्योहार मनाया जाए तो उत्सव का मजा दोगुना हो जाएगा।