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आस्था में मिलावट…

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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बहुत दिनों बाद सब्जी मंडी जाना हुआ…। श्रीमती जी मुझे पकड़ कर आज ले ही गईं, लेकिन मुझे इस बार भी मंडी के एक कोने में खड़ा कर दिया गया। मंडी में ख़रीददारी श्रीमती जी अकेले ही करती हैं। पता नहीं कैसे, जैसे ही मैं खरीददारी करने जाता हूँ, मंडी में सब्जियों के भाव एकदम बढ़ जाते हैं। इतना भाव तो कॉलेज में लड़कियाँ भी नहीं करती थीं…। श्रीमती जी भी मंडी में घुसते वक्त मुँह ढक लेती है,…नहीं.., कोई चोरी के इरादे से नहीं.., बस दुकानदार को पता न लग जाए कि डॉक्टर के घर सब्जियाँ जाने वाली है, नहीं तो सब्जियों के साथ दुकानदारों के भी भाव बढ़ जाते हैं।

खैर, कोने में खड़ा बोर हो रहा था, लेकिन मजबूरी थी। इतने में शर्मा जी दिख गए।- “ओह, गुड! अरे यहाँ, कैसे खड़े हैं ?”
“आपकी भाभी जी सब्जी खरीद रही हैं”, मैंने कहा।
शर्मा जी बोले,-“आओ, मेरे साथ कुछ खरीददारी कर लो, बोरियत मिट जाएगी…, वो कुछ केले भी लेने हैं।”
मैंने कहा,-“केले ? किसलिए…?”
“अरे, तुम्हें पता नहीं! हमारे यहाँ अखंड रामायण चल रही है। पंडित जी और उनकी मंडली आई हुई है। कुछ हवन की सामग्री खरीदनी है, फल-फूल भी लेने हैं।”
हम दोनों केले के ठेले पर ठहर गए। शर्मा जी ने थैला हमें पकड़वा दिया। शर्मा जी बोले,-“भाई साहब, क्या भाव दिए हैं केले ?”
दुकानदार ने जवाब दिया,,-“ये २० ₹ दर्जन के हैं।”
शर्मा जी ने कहा,-“अरे, मुझे ख़रीदने हैं भाई!, डॉक्टर साहब को नहीं। सही-सही भाव लगा लो।”
तभी उनकी नजर ठेले के कोने में रखे कुछ सड़े हुए केलों पर पड़ी। बोले,-“ये क्या भाव दिए हैं ?”
दुकानदार बोला,-“साहब, ले जाइए, जो देना है दे दीजिए। शाम तक नहीं निकले तो वैसे भी कचरे में डालने हैं।”
मैंने शर्मा जी को देखा, और उन्होंने निर्लिप्त भाव से सड़े हुए केलों में से १० केले छांट कर रख लिए, और ५ ₹ पकड़ा दिए। बोले,-“लो, रख लो।”
मुझे समझ नहीं आया, लेकिन शर्मा जी समझ गए। बोले,-“अरे गर्ग साहब, पूजा में ही तो काम आने हैं, कौन-से खाने हैं! वैसे भी पंडित जी पूजा के बाद सारा सामान घर ले जाते हैं।”
पास ही में किराने की दुकान थी। वहाँ भी शर्मा जी खींच कर ले गए। मैंने कहा,-“श्रीमती जी की ख़रीददारी हो गई होगी, मुझे जाने दो।”
शर्मा जी बोले,-“अरे, कोई नहीं, भाभी जी को मैं फोन कर देता हूँ, थोड़ा इंतजार कर लेंगी। आपके पास गाड़ी है न, थैला रख दूंगा, थोड़ा आराम हो जाएगा। अभी कुछ किराने का सामान लेना है।”
किराने की दुकान पर शर्मा जी ने पुजारी की दी हुई सूची निकाली। बोले,-“शुद्ध देसी घी दो… हवन के लिए घी… प्रसाद के लिए घी… और हाँ, घर का घी भी खत्म हो गया है, वो हमने अग्रिम बुकिंग करवाई थी न, तो वो भी निकाल देना।”
पहली बार मालूम चला कि देसी घी भी इतने प्रकार का होता है। मैं तो सोचता था कि देसी घी या तो शुद्ध होगा या मिलावटी होगा। ये नए-नए ब्रांड..! दुकानदार ने ३ तरह के डिब्बे निकाले। एक पर लिखा था ‘हवन के लिए शुद्ध देसी घी,’ भाव ३०० रुपए किलो। दूसरे पर लिखा था ‘प्रसाद के लिए शुद्ध देसी घी,’ भाव ५०० रुपए किलो।
और घर के लिए जो घी लिया, उस पर कोई ब्रांड नाम नहीं था। पता चला कि घर के लिए गाँव से शुद्ध देसी घी आता है, दुकानदार जो पास के ही गाँव का है, वहाँ २ भैंसें बाँध रखी हैं। जो घी बनता है, वो यहाँ शहर लाते हैं, और शर्मा जी जैसे २-३ ग्राहकों को अग्रिम बुकिंग पर रखते हैं। भाव ९०० ₹ किलो।
तीनों घी ख़रीद लिए गए। मैंने अपने आए हुए उल-जुलूल भावों को बड़ी मुश्किल से छुपाते हुए थैला पकड़े रखा। मुझे लगा शायद इस आस्था की मिलावट में मैं भी भागीदार हो रहा हूँ।

रास्ते में शर्मा जी बोले,-“यार, सुना तुमने तिरुपति बालाजी में क्या हुआ ? धर्म के साथ कैसा खिलवाड़! घोर कलयुग आ गया रे। बताओ, लड्डुओं में भी मिलावट, गाय की चर्बी… छी-छी! अब तो कहीं जाने का धर्म ही नहीं रहा रे। अब तो बस घर में ही कुछ धर्म-कर्म कर लेना है जो। सरकार ने मंदिरों को तो बस कमाई का जरिया बना लिया है।”