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उसके तो ४-४ है…

संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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एक दिन हमेशा की तरह दोस्त के साथ हमारे आफिस के बगलवाली चाय-समोसे की दुकान पर खड़ा होकर चाय और समोसे का आर्डर दे ही रहा था कि वो आ गई। न जाने कैसे उसे पता चलता है कि, हम वहाँ चाय पीने आते हैं…। उसका वही अंदाज, मैले-कुचैले कपड़ों में लिपटी हुई, कमर में पुराने कपड़े का थैलीनुमा बड़ा-सा झोला गर्दन से लटकाया हुआ, जिसमें उसका छोटा-सा बच्चा अपने एक हाथ का अँगूठा हमेशा मुँह में ठूँसा हुआ रहता था। सामने आते ही उसने कुछ खाने के लिए माँगने का ईशारा कर हाथ फैलाया। उसका वह रूप देखकर मैंने चाय वाले से कहा,- “भाई इसे भी दे देना २ समोसे ।”
समोसे की पुड़िया हाथ में आते ही सड़क के किनारे थोड़ा हटकर उसने वहीं पर पुड़िया खोली और १ समोसा गपा-गप खा लिया, तो दूसरा समोसा खुद खाने की बजाय उठाकर सामने खड़ी कुतिया की तरफ फेंक दिया।
जैसे ही उसने समोसा कुतिया की तरफ फेंका, मेरा माथा ठनका। मैंने थोड़ा गुस्से में ही उससे कहा,-“अगर खाना ही नहीं था तो पहले बोल देती, समोसा कुत्ते को खिलाने का क्या मतलब ?”
उसने मेरी तरफ एक सरसरी नजर डाली और थोड़ी अनदेखी कर आगे चलते हुए बोली,-“ मेरी तो एक ही है साहिब, उसके तो ४-४ है…।”

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