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ऊँच-नीच का भेद नहीं

संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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भक्ति, संस्कृति, और समृद्धि का प्रतीक ‘हिंदी’ (हिंदी दिवस विशेष)…

यही एक ऐसी भाषा है,
जिसे सीखना कब
शुरू किया,
याद नहीं।

बचपन में घर से बाहर,
निकलते ही एक भाषा
कानों में गूँजने लगी
जो भी दोस्त मिलते,
उनसे इसी भाषा में ही
बातचीत करने की कोशिश में,
कब कामयाब हुए
पता ही नहीं चला।

बस खेलते-खेलते,
लड़ते-झगड़ते बोलते गए
और अपने-आप ही सीखते गए,
शायद इसी तरह से
सीखना हुआ इस मधुर भाषा का।

घर की दहलीज़ के बाहर की, दुनिया की
भाषा केवल एक ही है,
वह यही भाषा है ऐसे ही लगता था
चूंकि, हर दोस्त की मातृभाषा
अलग-अलग थी,
यह बात भी कुछ वक़्त बीत जाने के
बाद ही मालूम हुई।

जैसे-जैसे बड़े होते गए,
इस भाषा की सुंदरता
एवं
सहजता और भी भाने लगी,
अब लगने लगा है कि
इसकी सुंदरता का हर एक पहलू,
अनेकता में एकता ही है।

यदी सही तरीके से इसे जानना है,
तो इसे बोलने के अलावा लिखना भी होगा
तभी तो इसमें प्रचुरता आएगी,
दुनिया की हर भाषा
बोलने वालों को यह भाषा सुंदर ही लगेगी।

मातृभाषा से प्यार तो,
हर एक को होता है
परंतु मन का लगाव,
जो इस भाषा से है
ऐसा लगाव हो गया है,
जो किसी अन्य भाषा से नहीं हो पाया।

यह ऊँच-नीच का भेद नहीं मानती,
इसमें कोई भी कैपिटल या
स्माल लैटर भी नहीं होता है,
सब आख़र बराबर होते हैं…
साथ ही आधे अक्षर को,
सहारा देने के लिए पूरा
अक्षर हमेशा तैयार रहता है…।
यही मेरी प्यारी भाषा,
मेरी हिंदी भाषा॥