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एक नाव में सवार हमारी भाषाएँ

निर्मलकुमार पाटोदी

इन्दौर(मध्यप्रदेश)

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इस विचार से सहमत नहीं हूँ-“हिंदी का दुर्भाग्य है,हिंदी के लोग भारत की अन्य प्रांतीय भाषाएँ सीखते नहीं,इसलिए हिंदी का विकास नहीं हुआ है।” हिंदी भाषा है,उसका दुर्भाग्य कहना ठीक नहीं है। भाषा का दुर्भाग्य कहना अनुचित है। दुनियाभर में लोग स्वेच्छा से अपनी-अपनी भाषाएँ सीखते हैं। हिंदी को स्वाधीनता के बाद से ही छल-कपट,स्वार्थ,द्वेष और राजनीतिक भावना के वशीभूत अपना लोकतांत्रिक स्वभाविक अधिकार नहीं मिल सकें,इसलिए अवरोध पैदा किए गए हैं,जो बहुत ही ग़लत हुआ है। अंग्रेज़ी भाषा को हिंदी के सामने लाकर उसे अविकसित,पिछड़ी,अव्यावहारिक,अयोग्य और कठिन भाषा कहा गया है। कोई भाषा अपनाने से उपयोग में लाने से स्वत: अपना यथायोग्य स्थान ग्रहण कर लेती है। हमें अंग्रेज़ी,फ़्रेंच, हिब्रू,चीनी भाषाओं के इतिहास से अवगत होना चाहिए। विचार करना चाहिए कि भारत की विशाल जनसंख्या को देखते हुए बच्चों को बचपन से अन्य भारतीय भाषाएँ सिखाने का ख़र्च उठाना कितना व्यावहारिक होता ? बांग्ला,तमिल,तेलुगु,कन्नड़, मलयालम,गुजराती,मराठी,पंजाबी,कश्मीरी,असमिया जैसी दस भाषाओं को बच्चों को हिंदी भाषियों के विद्यालयों में सिखाया जाना कितना असंभव होता ? इतनी भाषाओं को सिखाने वाले मिलना कितना असहज होता ? व्यावहारिक तो यह होता और है कि गैर-हिंदीभाषी प्रदेशों में अंग्रेज़ी की अपेक्षा हिंदी लिखने- पढ़ने जितनी व्यवस्था विद्यालयों में कर दी जाती। गैर-हिंदीभाषी राज्यों में बालक काम चलाऊ हिंदी सीख जाते तो पूरे देश में परस्पर सम्पर्क की भाषा हिंदी बन जाती,जो आज भी बनी हुई है। जो गैर हिंदीभाषी भारत सरकार में और अन्य प्रदेशों में सेवाओं में,उद्योगों में या अन्य क्षेत्रों में पहुँचना चाहते हैं,उनके लिए माध्यमिक कक्षाओं से हिंदी का आवश्यक अध्ययन व्यवस्था का ऐच्छिक प्रावधान करना संगत होता।दुर्भाग्य से ऊपर दिए गए कारणों से,हिंदी द्वेष के नाम पर अंग्रेज़ी भाषा को पूरे देश में प्रचलित कर दिया गया। परिणाम यह हुआ है कि देश के हर भाग में चारों ओर बच्चे और युवक अपनी स्थानीय,मातृभाषा में अधकचरा ज्ञान रखते हैं। अपनी भाषाओं की अपेक्षा उनके लिए अंग्रेज़ी भाषा ज़्यादा सहज, सुगम है। दुर्भाग्यपूर्ण दुविधा से मुक्ति के लिए कड़वा कदम यह है कि जैसा कश्मीर में नरेन्द्र मोदी ने धारा ३७० तथा ३५-अ को हटाने का साहस दिखाया है,वैसा ही सख़्त कदम उठाना होगा।देश में तीन नहीं,सिर्फ दो भाषा सिखाने की नीति ही व्यावहारिक है। अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता ख़त्म करना होगी। अंग्रेज़ी भाषा के साथ दुनिया की अन्य विकसित भाषाओं को सीखने की जिनको आवश्यकता है,वे सभी ऐच्छिक रूप से विदेशी भाषाएँ सीख सकते हैं। भारत में दुनिया के ज्ञान-विज्ञान की खिड़की अंग्रेज़ी बनाई हुई है। उसके स्थान पर विश्व में जहाँ जो नई खोज,अनुसंधान या कामकाज हो रहा है,उसे अपने देश के लोगों को अपनी भाषाओं के माध्यम से सीधा-सीधा अबाध रूप से प्रवेश करने की नीति अपनाना होगी। अब तक अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से हमारे देश में बासी, अधकचरा अनुसंधान,ज्ञान,जानकारी आती रही है। यही कारण है कि गुणवत्ता के क्षेत्र में हम पिछड़े हुए हैं। चाहे ओलंपिक हो, या नोबल पुरस्कार या अन्य क्षेत्रों में हमारी हालत दयनीय बनी है। हिंदी वालों को पहले अपनी भाषा को हर क्षेत्र में उसका अधिकार मिले,इसके लिए कार्ययोजना बनाना होगी। कोई भाषा धीरे-धीरे नहीं,तत्काल आदेश से क्रियान्वित होती है।गैर हिंदीभाषियों को अंग्रेज़ी भाषा के कारण उनकी भाषाओं और भाषा वालों को हो रहे अपरिमित नुक़सान से धैर्य के साथ अवगत कराना होगा। विश्वास दिलाना होगा देश की सभी भाषाएँ परस्पर एक-दूसरे की पूरक हैं,विरोधी नहीं। देश में सभी भाषाओं को सिर्फ कथा,कहानी,उपन्यास,साहित्य तक सीमित नहीं रखते हुए उन्हें व्यवहार में लाकर ज्ञान-विज्ञान से परिपूर्ण करना होगा।

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