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एक शिक्षक ऐसे भी

दिनेश चन्द्र प्रसाद ‘दीनेश’
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
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हमारे देश भारत में दिवसों की कमी नहीं है। उन्हीं में एक दिवस ‘शिक्षक दिवस’ भी है, जिसे बाकी दिवसों की तरह हम मना कर भूल जाते हैं अगले साल तक के लिए। शिक्षक दिवस की महत्ता तब और बढ़ जाती है, जब हम किसी ऐसे शिक्षक के बारे में बात करते हैं जिन्होंने कुछ आदर्श स्थापित किए हों, या कुछ अलग किया हो।
इस कड़ी में मैं अपने एक शिक्षक के बारे में बताना चाहूंगा। बात तब की है, जब मैं कक्षा छह में पढ़ता था। उन दिनों कक्षा छह से ही अंग्रेजी की पढ़ाई होती थी। हमारे अंग्रेजी के शिक्षक श्यामा नंदन प्रसाद सिंह थे। बच्चे उनके विषय में निपुण हो जाएं, इसके लिए वो ४ बजे शाला की छुट्टी हो जाने के बाद १ घंटा अंग्रेजी पढ़ाते थे। बिना किसी अतिरिक्त अनुदान या मुआवजा के। न कोई छात्र उन्हें, न ही विद्यालय कुछ देता था।
दिनभर १० से ४ बजे तक पढ़ने के बाद बहुत से बच्चे भाग जाते थे तो दूसरे दिन उनकी अच्छी खबर लेते थे। इस डर से कक्षा के सभी बच्चे उनकी कक्षा में उपस्थित रहते थे।
एक दिन दोपहर के मध्यांतर के समय मुझे अचानक बुखार आ गया। मध्यांतर के बाद ३ घंटी और पढ़ाई होती थी। छठवीं घंटी आते-आते मुझे बहुत तेज बुखार हो गया। कोई भी मेरा चेहरा देखकर बता सकता था कि, मुझे बुखार है। छठवीं घंटी में कक्षा भवन में जब दूसरे शिक्षक आए तो मेरा चेहरा देखकर बोले-“तेरी तो तबियत खराब है, तुम घर चले जाओ।”
मैंने कहा -“नहीं सर, ठीक है।”
इसी तरह छठवीं और सातवीं घंटी बीती। छुट्टी के बाद जब अंग्रेजी के सर आए तो वो भी मेरी हालत देख बोले-” तुम्हें जब बुखार था तो तुम घर क्यों नहीं चले गए ?”
तब किसी लड़के ने कहा-“सर इसको तो पांचवी घंटी से ही बुखार है। देव शरण बाबू (विद्यालय में सभी शिक्षकों को बाबू ही कहते थे।) तो छठी घंटी में ही इसको छुट्टी दे दिए थे, पर ये गया नहीं।”
मास्टर जी ने पूछा-“क्यों नहीं गए ?”
तो मैं बोला-“आप दूसरे दिन डांटने- मारने लगते, इसलिए।”
तो उन्होंने कहा-“अरे पागल, मैं उन लोगों को डांटता या मारता हूँ, जो जान-बूझकर बिना कारण गैरहाजिर हो जाते हैं। तुम्हारी तो तबियत खराब है, तो डांटने का सवाल ही पैदा नहीं होता है।”

तब मैं घर चला गया। तो जब ऐसे शिक्षक हों तो शिक्षक दिवस मनाना सार्थक हो जाता है और शिक्षकों के प्रति श्रद्धा भी बढ़ जाती है।

परिचय– दिनेश चन्द्र प्रसाद का साहित्यिक उपनाम ‘दीनेश’ है। सिवान (बिहार) में ५ नवम्बर १९५९ को जन्मे एवं वर्तमान स्थाई बसेरा कलकत्ता में ही है। आपको हिंदी सहित अंग्रेजी, बंगला, नेपाली और भोजपुरी भाषा का भी ज्ञान है। पश्चिम बंगाल के जिला २४ परगाना (उत्तर) के श्री प्रसाद की शिक्षा स्नातक व विद्यावाचस्पति है। सेवानिवृत्ति के बाद से आप सामाजिक कार्यों में भाग लेते रहते हैं। इनकी लेखन विधा कविता, कहानी, गीत, लघुकथा एवं आलेख इत्यादि है। ‘अगर इजाजत हो’ (काव्य संकलन) सहित २०० से ज्यादा रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आपको कई सम्मान-पत्र व पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। श्री प्रसाद की लेखनी का उद्देश्य-समाज में फैले अंधविश्वास और कुरीतियों के प्रति लोगों को जागरूक करना, बेहतर जीवन जीने की प्रेरणा देना, स्वस्थ और सुंदर समाज का निर्माण करना एवं सबके अंदर देश भक्ति की भावना होने के साथ ही धर्म-जाति-ऊंच-नीच के बवंडर से निकलकर इंसानियत में विश्वास की प्रेरणा देना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-पुराने सभी लेखक हैं तो प्रेरणापुंज-माँ है। आपका जीवन लक्ष्य-कुछ अच्छा करना है, जिसे लोग हमेशा याद रखें। ‘दीनेश’ के देश और हिंदी भाषा के प्रति विचार-हम सभी को अपने देश से प्यार करना चाहिए। देश है तभी हम हैं। देश रहेगा तभी जाति-धर्म के लिए लड़ सकते हैं। जब देश ही नहीं रहेगा तो कौन-सा धर्म ? देश प्रेम ही धर्म होना चाहिए और जाति इंसानियत।