शंकरलाल जांगिड़ ‘शंकर दादाजी’
रावतसर(राजस्थान)
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उठती है मन से जो पीड़ा,
घायल मन को तड़पाती है।
निसृत होते जो भाव वही,
प्यारी कविता बन जाती है॥
कवि जब भी पीड़ित होता है,
तन्हा खुद को कर लेता है
साँसों में बसी हुई कविता
उसको श्रृंगारित करता है।
मन प्राण बसे हैं कविता में,
कविता जीवन की थाती है।
निसृत होकर मन…॥
कहता है उसको कुसुम कली,
कह रम्भा उसे बुलाता है
कहता है अल्हड़-सा यौवन
अपना उत्सर्ग दिखाता है।
कहता सरिता-सी लहरा कर,
बल खाकर बहती जाती है।
निसृत होकर मन…॥
लगती है चाँदनी चँदा की,
बिजली की तरह चमकती है
उसको शीतल कर देती जो
भावों की आग धधकती है।
मन में उठती सारी उलझन
ये कविता ही सुलझाती है।
निसृत होकर मन…॥
जब हृदय तरंगित होता है,
साकार कल्पना हो जाती
माँ वाणी की वीणा के सँग,
नर्तन करती कविता आती।
जो कुछ भी मैं लिख लेता हूँ,
माँ शारद ही लिखवाती है।
निसृत होकर मन…॥
उठती है मन से जो पीड़ा,
घायल मन को तड़पाती है।
निसृत होते जो भाव वही,
प्यारी कविता बन जाती है॥
परिचय–शंकरलाल जांगिड़ का लेखन क्षेत्र में उपनाम-शंकर दादाजी है। आपकी जन्मतिथि-२६ फरवरी १९४३ एवं जन्म स्थान-फतेहपुर शेखावटी (सीकर,राजस्थान) है। वर्तमान में रावतसर (जिला हनुमानगढ़)में बसेरा है,जो स्थाई पता है। आपकी शिक्षा सिद्धांत सरोज,सिद्धांत रत्न,संस्कृत प्रवेशिका(जिसमें १० वीं का पाठ्यक्रम था)है। शंकर दादाजी की २ किताबों में १०-१५ रचनाएँ छपी हैं। इनका कार्यक्षेत्र कलकत्ता में नौकरी थी,अब सेवानिवृत्त हैं। श्री जांगिड़ की लेखन विधा कविता, गीत, ग़ज़ल,छंद,दोहे आदि है। आपकी लेखनी का उद्देश्य-लेखन का शौक है