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कहाँ गया वो आपसी मेलजोल

सरोजिनी चौधरी
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
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कहाँ गया रिश्तों से प्रेम…?…

एक आक्रोश उभरता है मेरे मन में, कैसे निडर हो गए हैं आजकल बच्चे। माँ इतनी देर से पुकार रही है पर कुछ जवाब ही नहीं दे रहे हैं, बैठे होंगे कान में इयर फ़ोन लगा कर…। क्या समय आ गया है रिश्तों की कोई मान्यता ही नहीं रह गई है। बच्चों को भी क्या कहें, वे भी जैसा देखते हैं;वैसा ही करते हैं। आप घर में माता-पिता से कैसा व्यवहार कर रहे हैं, बच्चे उसे बड़े ध्यान से देखते हैं और आज के बच्चे जवाब देने में १ मिनट भी नहीं लगाते। भाई-बहन का प्यार, भाई-भाई का प्यार, पति-पत्नी का प्यार, अपने रिश्तेदारों से व्यवहार, कहीं तो पहले जैसा माधुर्य नहीं है।

पता नहीं कहाँ चला गया वह समय, जब सारा परिवार एकसाथ रहता था। कभी कोई समस्या आ जाए तो सब मिलकर उसे ऐसे सम्हाल लेते थे, कि पता ही नहीं चलता था। यह नहीं कहती कि परिवर्तन नहीं होना चाहिए। यह तो एक शाश्वत सत्य है कि समय के साथ-साथ परिवर्तन होता है, पर परिवर्तन का प्रकार क्या है, हम बन रहे हैं या बिगड़ रहे हैं ? इस विषय पर बात करना
अत्यन्त आवश्यक है।
कहाँ चला गया वो रिश्तों में प्रेम, गाँव से कोई पढ़ने के लिए या नौकरी के लिए बाहर जाता था तो जाते समय पूरा गाँव इकट्ठा हो जाता था। गाँव में क्या कहें, शहरों की बात बताती हूँ। आज से ५० साल पहले त्यौहार जैसे मनाया जाता था, जो उमंग और उत्साह रहता था;अब वैसी कोई बात ही नहीं है।
फ्लैट में रहने वाले जानते ही नहीं, कि उनके आस-पास कौन रहता है ? बच्चों में थोड़ी दोस्ती हो जाती है, क्योंकि साथ-साथ कभी खेल लेते हैं। रोज़ बाहर जाने के लिए तो उनके पास समय ही नहीं है।मोबाइल, लैपटॉप, विभिन्न प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक खेल में बच्चे उलझे पड़े हैं। अच्छी पौराणिक कहानियाँ न वे पढ़ना चाहते हैं, न सुनना चाहते हैं।
अभी कुछ दिन पहले की ही बात है-मेरी चाची बता रही थीं कि उनका बेटा यानी मेरा चचेरा भाई भास्कर जो शहर में पढ़ता है, इस बार आया तो १० हज़ार ₹ की फ़रमाइश करने लगा कि कुछ फ़ीस कुछ पुस्तकें और कुछ उसके अपने खर्चे पहले से बढ़ गए हैं। चाचा-चाची के यह कहने पर कि वे इतने ₹ कहाँ से लाएँगे? क्या उत्तर दिया, आप भी सुनिए। बोला-“मैं यह सब नहीं जानता, आप लोगों ने मेरा एडमिशन शहर में क्यों करवाया, जब पैसे ही नहीं थे! जब ठीक से पढ़ा-लिखा नहीं सकते तो पैदा ही क्यों किया ?”
माँ से यह अपमान नहीं सहा गया और बीच में ही बोल पड़ी-“भास्कर ! तनिक अपने पिता का ख्याल करो, किस प्रकार से तुम्हें रुपए भेजते हैं और तुम हो कि बिना सोचे-समझे कुछ भी बोलते जा रहे हो।”
यह एक घर की नहीं, बहुत घर की कहानी है।
एक और सत्य कहना चाहूँगी।पति बिस्तर पर लेटा हुआ है, वहीं पत्नी दूसरी ओर लेटी मोबाइल पर तेज़ आवाज़ में कुछ सुन रही है। देख रही है कि वह सोने की तैयारी में है, फिर भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। आज यह अवहेलना का दंश उसकी नींद का चीर हरण कर रहा है। ज़ुबान बंद है, विवाद या कलह करने का उसका मन नहीं है।
प्रश्न यह उठता है, कि ये जो निरंतर हमारा आपस का प्रेम कम होता जा रहा है, इसका कारण क्या है ? हम इस विषय पर बात करें तो इसके कई कारण हो सकते हैं। कुछ कारण प्रमुख हैं-विश्वास की कमी, संवाद की कमी, अपेक्षाओं का टकराव और व्यक्तिगत विकास में अंतर।
◾विश्वास की कमी-
एक-दूसरे पर भरोसा न करना, झूठ बोलना, या धोखा देना रिश्तों में दरार पैदा कर सकता है।
संवाद की कमी-
खुलकर और ईमानदारी से बात न करना, गलतफहमियों को जन्म दे सकता है और दूरियाँ बढ़ा सकता है।
◾अपेक्षाओं का टकराव-
जब साथी एक-दूसरे से अलग-अलग अपेक्षाएं रखते हैं और पूरा नहीं कर पाते हैं, तो इससे निराशा और नाराजगी हो सकती है। ◾व्यक्तिगत विकास में अंतर-

जब साथी एक-दूसरे से अलग दिशाओं में बढ़ते हैं और उनके जीवन के लक्ष्य अलग-अलग हो जाते हैं, तो यह भी रिश्तों में अलगाव का कारण बन सकता है।

◾सामाजिक दबाव-
कभी-कभी सामाजिक दबाव और अपेक्षाएं भी रिश्तों में तनाव का कारण बन सकती हैं।
◾पुरानी बातें-
पुरानी बातें मन में रखना और उन्हें माफ न कर पाना रिश्तों में नकारात्मकता पैदा कर सकता है। जब दूसरों की केवल कमी निकालते हैं ,सराहना नहीं करते हैं, तो यह उनके रिश्ते को कमजोर कर सकता है।
◾मानसिक तनाव-
आजकल पारिवारिक समस्याओं पर यह भी नकारात्मक प्रभाव डालता है। आज की सबसे बड़ी चुनौती है कि इन गिरती हुई मान्यताओं में सुधार कैसे किया जाए।
अपना देश तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ को मानने वाला देश है। जब हम अपने आपस के रिश्तों में ही प्रेम नहीं बाँट पाएंगे तो समाज, देश और विश्व के लिए क्या कर पाएँगे।
पुरानी बातों को मन में न रखें
कई बार साथी के बीच कई सारी बातें ऐसी होती हैं, जिनका उन्हें बुरा लगता है। अगर आप उन बातों को मन में रखते हैं, तो इससे रिश्ते में खटास आ सकती है। अगर इस दौरान कोई बात मन में चुभ गई है, तो बेशक खुलकर उस बात का विरोध करें। इससे हो सकता है कुछ देर के लिए हल्का झगड़ा होगा, लेकिन वो चुभी नहीं रहेगी। पुरानी बातों को मन में दबाए रखने से रिश्ता न सिर्फ कमजोर होता है बल्कि दूरियाँ भी बढ़ती हैं।
आप इस बात तो वाकिफ होंगे ही कि किसी भी रिश्ते में विश्वास बहुत बड़ी चीज होती है। विश्वास को सिर्फ एक बार जीतने की कोशिश न करें, बल्कि दिन-ब-दिन बढ़ाने की भी कोशिश करें। अपने व्यस्त कार्यक्रम से समय निकालकर, परिवार के साथ समय बिताएं।

◾खुली बातचीत करें-
परिवार के सदस्यों के साथ खुलकर बात करें। अपनी बातें साझा करें और उनकी बातें सुनें।

◾एक-दूसरे के फैसलों का सम्मान करें-
परिवार के सभी सदस्यों के फैसलों का सम्मान करें और उन पर अपनी राय थोपने से बचें।

◾एक-दूसरे की मदद करें-

परिवार के सदस्यों को एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए, चाहे वह काम हो या भावनात्मक समर्थन।

◾एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति रखें-
परिवार के सदस्यों को एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए और उनकी भावनाओं को समझने की कोशिश करनी चाहिए।
◾गलतियों को माफ करें-
 गलतियाँ हर किसी से होती हैं, इसलिए माफ करना सीखें और आगे बढ़ें।
◾परंपराओं का पालन करें-

पारिवारिक परंपराओं का पालन करने से परिवार के सदस्यों के बीच एकता और जुड़ाव की भावना बढ़ती है।
◾मिलकर गतिविधियां करें-
एकसाथ मिलकर खेल खेलें, फिल्में देखें, या कहीं घूमने जाएं। एक-दूसरे को प्रोत्साहित करें।परिवार के सदस्यों को एक-दूसरे को प्रोत्साहित करना चाहिए और उनके लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करनी चाहिए। धैर्य रखना बहुत ज़रूरी है, खासकर जब चीजें ठीक न चल रही हों।
◾सकारात्मक सोच रखें-

सकारात्मक सोच रखने से परिवार में खुशी और शांति बनी रहती है।◾भगवान का ध्यान करें-

भगवान का ध्यान करने से मन शांत रहता है और परिवार में सुख-शांति बनी रहती है। याद रखें कि जो परिवार में प्रेम और आपसी मेल-जोल के साथ नहीं रह सकता, वह समाज और देश में सौहार्द के साथ कैसे कर पाएगा ? इसलिए परिवार में प्रेम से रहना चाहिए।
चलते-चलते अपनी कविता की कुछ पंक्तियाँ-
“मुझे याद आता है घर वो पुराना,
सुकूँ था, न था कोई यूँ ग़म का मारा
रहते थे सब साथ मिल एक घर में,
सदा बनते एक-दूसरे का सहारा।

है अब हाल ऐसा बुरा, है फसाना,
मैं हूँ और मैं हूँ यही बस है जाना
पिता-माता को भी न कोई सहारा,
परदेशी बेटा, करें कैसे गुज़ारा ?

सजते-सँवरते थे चौपाल पहले,
बुजुर्गों की महफ़िल न थे वे अकेले
अदब से सभी उनका सम्मान करते,
सदा पैर छू करके आशीष लेते।

मगर अब तो पहचानते ही नहीं हैं,
कमीं उनकी स्वीकारते ही नहीं हैं
है संस्कार क्या जानते ही नहीं हैं,
नये युग में आ भूल सब ये गये हैं।

तहज़ीब अपनी नहीं याद इनको,
छोटे-बड़े का नहीं ध्यान इनको।
शर्मो-हया का है निकला ज़नाजा,
नहीं भाता शायद उम्र का है तक़ाज़ा॥